Friday, October 18, 2024

पित्रसत्ता और दलित माहिलाएं

 

पितृसत्ता और दलित महिला एक सामाजिक प्रश्न

रावेंद्र प्रताप सिंह

इलाहाबाद विश्वविद्यालय

समाज में एक प्रश्न पितृसत्ता से जुड़ा हुआ है? जो अक्सर समाज इस प्रश्न पर उठाने पर मुँह फेर लिया जाता है। दलित समाज में ही नहीं देश के सभी समुदायों में पितृसत्ता के लक्षण पाये जाते है उदहारण के लिए देश और राज्यों गावों में अनेको उदहारण देखने को मिलते है पितृसत्ता समाज के कुछ उदाहरण प्रस्तुत करता हु। कौसल्या बैसन्त्री की 'आत्मकथा -दोहरा अभिशाप 'और सुशीला टाकभौरे की आत्मकथा 'शिकंजे का दर्द 'में अनेक स्थान में दर्ज हुआ है कि लिखिका सुशीला टाकभौरे लिखती है 'पति द्वारा बार-बार पीटी जाती हैं। उनके पति बहुत दिनों तक उनकी तनख्वाह अपने हाथ में रखते थे हर वक्त उन पर किसी पराये व्यक्ति जैसा व्यव्हार करते थे,अपराधी की तरह नियंत्रण में रखते है माकन खरीदना है तो अपने नाम से लेना इत्यादि तमाम ऐसे प्रसंग यह साबित कर ही देते हैं कि उनके पति की मानसिकता पितृसत्तामक से मुक्त नहीं हैं। ऐसी प्रकार के अनेक प्रसंग 'दोहरा अभिशाप 'में भी आये है। यहाँ पर एक पुस्तक को और शामिल करना चाहूंगा जो देश की प्रथम महिला आईपीएस किरण बेदी जी है 'जीत लो हर शिखर 'इसमें उन्होंने अपने पुलिस सर्विस की अनेकों घटनाओं को लिखा है। यह पितृसत्तामक समाज उन्हें यह अधिकार देता है कि पत्नी,बेटी,बहुओ को नियंत्रण में रखने और उनपे अत्याचार 'जुल्म 'करने का बढ़ावा देता है। यह अनुसूचित जाति की महिलाओं का नहीं बल्कि सभी महिलाओं का दमन करता है परन्तु सबसे ज्यादा इस पितृसत्तात्मक समाज के दमन और शोषण का एक समुदाय ज्यादा प्रभावित किया जाता है जो अनुसूचित जाति की महिलाओं का समुदाय है। वर्ण-जातिप्रधान समाज भी उसके प्रति सवेदनशील नहीं है। घर से ज्यादा सवर्ण उसे दोहरे तरह से नियंत्रण में रखना चाहता है उस पर दलित महिला होने का ठप्पा लगा दिया जाता है क्योंकि वह गुलामी कमजोम जाति की स्त्री है उस पर नियंत्रण पाना जैसे पुरे दलित समाज पर नियंत्रण रखने के सामान है। आर्थिक शक्तियों और सामाजिक स्थितियों को अपने नियंत्रण में रखने के लिए धर्म और पुनर्जन्म का भय दिखाकर दलित समाज और दलित महिलाओं का दमन जारी रखा जाता है यह सिलसिला थमता नहीं है बल्कि और विकराल हो जाता है दलित साहित्य की सभी विधाओं में स्त्रियों से जुडी ये समस्याएं चित्रित हुई है इसलिए कहा जा सकता है कि दलित स्त्री समक्ष मात्र पितृसत्तात्मक सामाजिक व्यवस्था की ही समस्या नहीं है बल्कि उसकी मूल समस्या वर्ण जाति व्यवस्था भी है। उनके स्त्रियों,शैक्षिक,सामाजिक,आर्थिक और राजनितिक ज्ञान-विज्ञान मिडिया से पिछड़ी है तो मात्रा जाति -व्यवथा इसकी जिम्मेदार है। अमर उजाला दैनिक में 30 जनवरी 2014 को यूनेस्को की एक रिपोर्ट प्रकाशिक हुई थी ,उसमे कहा गया है ,"भारत में सबसे अमीर युवतियों ने पहले ही वैश्विक स्तर की साक्षरता हासिल कर ली है,लेकिन सबसे गरीब युवतियों ऐसा कर पाना 2080 तक ही संभव हो सकता है। '' यूनेस्को की यह रिपोर्ट बतलाती है कि भारत में गरीब की शैक्षिक स्थिति अत्यन्त चिंताजनक है। हमारे देश में पितसत्तामक जो प्रथा कार्य कर रही वह न केवल महिलाओं को उनके अधिकारों से ही नहीं बल्कि देश और राज्यों को पीछे ले जाने का कार्य रही हैं जिसका स्वारूप आने वाले समय में समाज में ऐसी परिस्थिति में लेकर खड़ा कर देगा जिसका जवाब भारतीय पितृसत्तामक समाज के पास उत्तर नहीं होगा ये समाज उन सवालो का उत्तर देने में असमर्थ होगा जो आने वाले कुछ समय में शिक्षित युवतियों द्वारा पूछा जायेगा।परिणामस्वरूप महिलायें संसाधनों तक काम पहुच पाती है ओर परिवार मे पुरुषों के मुकाबले उनकी आवाज़ बहुत काम या न के बराबर सुनी जाति है। इसी के चलते महिलाओं पर प्रभुत्व पुरुषों का राहत है व उनके साथ भेदभाव किया जाता है. इस व्यवस्था का पीड़ी दर पीड़ी सामाजिक कायदों ओर संस्कृति मूल्यों के नाम पर पोषण होता राहत है. इससे महिलाओं का पूर्ण विकास नहीं हो पाता है.

महिलाओं के साथ भेदभाव का चक्र उनके जन्म के पहले से ही शुरू हो जाता है, जहां लड़कियों के मुकाबले लड़कों को ज्यादा महत्व दिया जाता है जिसके कारण हम लिंग चयन आधारित भ्रूण हत्या के मामले देखते हैं। ये भेदभाव ओर असमानता सामाजिक दर्ज़ा महिलाओं पर होने वाली हिंसा के मूल्य कारण है. हर उम्र, वर्ग, धर्म, संस्कृति, जाति, इलाके व शैक्षिक स्तर पर भी महिला इससे प्रभावित होती है. माना जाता है कि पुरुष ही महिलाओं पर हिंसा करते है, लेकिन ऐसा नहीं होता अक्सर औरत अपने परिवार की पित्रासतात्मक सोच वाली महिला सदस्य द्वारा भी हिंसा का शिकार होती रहती है, अधिकांश मामलों मे हिंसा परिवार या आस-पड़ोस के दायरों मे ही होती है.

पित्रसत्ता' शब्द का अर्थ:- पित्रसत्ता अंग्रेजी शब्द "पैट्रियकरी" का हिन्दी अनुवाद है। अंग्रेजी मे यह शब्द दो यूनानी शब्दों पैटर ओर आर्की को मिलाकर बना है। पैटर कर अर्थ है पिता ओर आर्की का मतलब है शासन. यानी कि ' पिता का शासन ' जिसे पित्रासत्तमक कहते है.

औरतों की रोज़मर्रा की ज़िन्दगी मे कहाँ है (पित्रसत्ता):- एक पित्रसात्मक समाज मे माहिलाएं हर पल पित्रासत्ता के अलग-अलग रूपों से रु--रु होती है. बात चाहे तरह-तरह के आधारों पर भेदभाव की हो या आज़ादी में बिना वजह कटौती ओर सुविधाओं मे भारी कमी की हो - ये सभी पित्रासत्ता के ही पहलू है। वहीं दूसरी ओर घरेलू व्यवस्था मे उनका प्रभाव ओर सम्मान उतना ही काम होता है, साथ ही उन्हें आर्थिक शोषण रूप से अधीनता, दमन ओर उत्पीड़न का भी शिकार होना पड़ता है।

कुछ नारीवादी,संसद,वकीलों द्वारा दिए गए विचार:-

उर्वशी बुटालिया (नारीवादी लेखिका )-- अभी भी हमारे देश में ,महिलाएं दूसरी श्रेणी की नागरिक बानी हुई हैं। लेकिन अब वह दरवाजे के बाहर खड़ी होने के बजाय दरवाजे के अंदर आने और अपनी,बात सुनने की मांग है। 

फूलन देवी (संसद की पूर्व सदस्य )-- जब मेरी शादी नहीं हुई थी तो मैं सोचती थी कि मेरे हाथों पर,चूड़ियों की खनक आनदमयी होगी। मैं पैरों में पायल और गले में चांदी का हार पहनने के लिए ,तैयार रहती थी,पर अब नहीं। जबसे मैंने यह सीखा कि ये सारी चीजें उस आदमी का प्रतिनिधित्व ,करती है जो इन्हे देता है। एक हार उस रस्सी से काम नहीं था जो एक बकरी को पेड़ से बांधती है और उसे आज़ादी से वंचित करती है। 

करुणा नंदी (भारतीय सुप्रीम कोर्ट में वकील )--

लोगों को जरुरत है कि वे महिलाओ को पूर्ण नागरिक , पूर्ण व्यक्ति की तरह देखे जिसका अधिकार है संगीत पसंद करना ,जिसका अधिकार है काम पर जाना ,जिसका अधिकार है 

अपनी यौनियता अपने हिसाब से व्यक्त करना।इंदिरा जय सिंह (भारतीय सुप्रीम कोर्ट की वकील )-- अगर मेरे साथ कोई पुरुष वकील होता है हो न्यायधीश पहले उसे बोलने को कहते हैं।अगर मेरी दूसरी तरफ पुरुष वकील होता है तो पहले उसे बोलने को कहा जाता है ,मै अपनी बात रखने के शुरुवाती कीमती मिनट खो देती हूँ। यह विचारधारा ऊपर से नीचे तक बहती है ,न्यायधीश भी हमारे समाज से आते है और वे न्यायालय में कैसा व्यवहार करते हैं ये उनकी परवरिश से पता चलता है। यह उनकी महिलाओं को बराबर स्वीकार ना कर पाने की क्षमता को दिखता है। 

फूलन देवी (पूर्व संसद )--

महिलाओं के लिए लड़ाई लड़ना बहुत जरुरी है ,चाहे वो किसी भी जाति या घर्म की हो,असलियत में महिला दलित है। 

मीना कंदासामी (वकील , शोधकर्ता और मानव अधिकार कार्यकर्त्ता )--

हिंसा कोई ऐसी चीज़ नहीं जो अपना प्रचार करे यह मेरे चेहरे पर नहीं लिखा है ,ज़ाहिर है कि अपने मुक्कों को मेरे शरीर पर मारते हुए वह इस बात को लेकर बहुत सावधान था। जब तक एक औरत बोल नहीं सकती ,जब तक हिंसा का कोई अंत नहीं है। 

पितृसत्तात्मक समाज में दलित महिलाओं की स्थिति अत्यधिक जटिल और चुनौतीपूर्ण है। यहाँ एक निष्कर्ष है:

पितृसत्तात्मक समाज और दलित महिलाएं:-

पितृसत्तात्मक समाज में दलित महिलाएं दोहरी लड़ाई लड़ती हैं - एक पितृसत्तात्मक समाज के खिलाफ और दूसरी जातिगत भेदभाव के खिलाफ।

दलित महिलाओं की स्थिति

पितृसत्तात्मक समाज के प्रभाव:- दलित महिलाएं अपने समुदाय के भीतर भी भेदभाव और हिंसा का सामना करती हैं। उन्हें अक्सर शिक्षा, स्वास्थ्य और आर्थिक अवसरों से वंचित रखा जाता है।
पितृसत्तात्मक समाज में दलित महिलाओं पर निम्नलिखित प्रभाव पड़ते हैं:

1.
शिक्षा की कमी
2.
आर्थिक अवसरों की कमी
3.
स्वास्थ्य सेवाओं की कमी
4.
हिंसा और उत्पीड़न
5.
सामाजिक और राजनीतिक अधिकारों की कमी

दलित महिलाओं की लड़ाई

दलित महिलाएं अपने अधिकारों के लिए लड़ रही हैं:

1.
शिक्षा और आर्थिक अवसरों की मांग
2.
स्वास्थ्य सेवाओं की मांग
3.
हिंसा और उत्पीड़न के खिलाफ लड़ाई
4.
सामाजिक और राजनीतिक अधिकारों की मांग

निष्कर्ष

पितृसत्तात्मक समाज में दलित महिलाओं की स्थिति अत्यधिक जटिल है। उन्हें दोहरी लड़ाई लड़नी पड़ती है - एक पितृसत्तात्मक समाज के खिलाफ और दूसरी जातिगत भेदभाव के खिलाफ। हमें दलित महिलाओं के अधिकारों की रक्षा करने और उनकी स्थिति में सुधार करने के लिए काम करना चाहिए।

  1. पितृसत्तात्मक समाज को बदलने की आवश्यकता है ताकि दलित महिलाएं समान अधिकार प्राप्त कर सकें।
    दलित महिलाओं को शिक्षा, स्वास्थ्य और आर्थिक अवसरों में समान पहुंच प्रदान करनी चाहिए।
    हिंसा और उत्पीड़न के खिलाफ कानूनी और सामाजिक कार्रवाई करनी चाहिए।
    दलित महिलाओं को सामाजिक और राजनीतिक अधिकारों में समान भागीदारी का अवसर प्रदान करना चाहिए।

    सिफारिशें:

    1. सरकार को दलित महिलाओं के लिए विशेष योजनाएं और कार्यक्रम बनाने चाहिए।
    2.
    सामाजिक संगठनों को दलित महिलाओं के अधिकारों के लिए काम करना चाहिए।
    3.
    शिक्षा और जागरूकता अभियान चलाने चाहिए ताकि लोग पितृसत्तात्मक समाज के खिलाफ खड़े हों।
    4.
    दलित महिलाओं को सामाजिक और राजनीतिक नेतृत्व में समान अवसर प्रदान करना चाहिए।

     

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