Wednesday, January 29, 2025

1857 की क्रांति में शहीद (सुरसी)

मध्य प्रदेश के आदिवादी (भील) परिवार में जन्मी सुरसी एक ऐसी महिला थीं, जिन्होंने अपने बेटे भीम नायक को अंग्रेजों के खिलाफ़ हथियार उठाने के लिए प्रेरित किया। उन्होंने अपने बेटे के साथ मिलकर भील, भिलाल, मांडलोई और नायक आदिवासियों का एक संयुक्त मोर्चा बना कर अंग्रेजों को जोरदार टक्कर दीं. 08 फरवरी 1849 को सलोदा के स्थान पर अंग्रेजों के खिलाफ़ एक युद्ध में उन्हें बंदी बना कर मंडलेश्वर किले में कैद कर दिया गया, जहाँ 28 फरवरी 1859 को उनका देहांत हुआ। 

 

भीम नायक ने 1857 के बाद भी जंग जारी रखी और 1861 में ही अंग्रेज़ उन्हें पकड़ सके. उन्हें कालापानी की सजा दी गयी जहाँ उनको 29 सितंबर 1876 को फाँसी दे दी गयी। मध्य प्रदेश में एक सरकारी योजना, "शहीद भीमा नायक परियोजना" का नाम उनके नाम पर रखा गया है। मध्य प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने मध्य प्रदेश के बड़वानी जिले के उनके पैतृक गांव ढाबा बावड़ी में एक "भीमा नायक स्मारक" समर्पित किया था। 21 जनवरी 2017.

 


 

Friday, January 24, 2025

उदा देवी की यकीन न आने वाली बहादुरी की दास्तान

आज़ादी के जंग में एक अकेली औरत के ज़रिए बहादुरी और कुर्बानी का एक ऐसा कारनामा अंजाम दिया गया जिस की कोई दूसरी मिसाल दुनिया की किसी भी अन्य जंग में मिलना मुश्किल है। उदा देवी की बहादुरी और कुर्बानी का आँखों-देखा हाल एक अंग्रेज़ फ़ौजी अफ़सर विलियम फॉरबेस मिषेल (William Forbes Mitchel) ने अपनी आत्म-कथा में लिखा है। यह वाक्या नवंबर 1857 अंत की है जब मिषेल की कमान में अंग्रेज़ी सेना ने सिकंदराबाद महल पर कब्ज़ा कर लिया था। उस के अनुसार-- 

सिकन्दरबाग महल के अंदर वाले दालान में एक पीपल का भारी पेड़ था जिस के नीचे तने के साथ ठंडे पानी के मटके रखे हुए थे। जब कत्ल-ए-आम लगभग खत्म हो गया था तो हमारे कई फ़ौजी पेड़ की छाओं में सुस्ताने और जबरदस्त प्यास को मटकों में रखे गए ठंडे पानी से बुझाने गए। देखा यह गया की इन में से कई पेड़ के नीचे मरे पड़े हैं....एक खास जगह पर इतनी सारी बिखरी लाशों की तरफ़ कप्तान डॉसन (Dawson) का ध्यान गया। गोलियों के निशान देखकर पता लगा की हर फ़ौजी को ऊपर से गोली मारी गयी है। 

यह देखकर वे पेड़ के नीचे से हट गए और  कुएकर वॉलेस (Quaker Wallace एक अंग्रेज़ मातहत अफ़सर) को यह मुआएन करने के लिया कहा कि किया कोई पेड़ के ऊपर बैठ है, क्योंकि पेड़ के नीचे पड़ी सब ही लाशों को ऊपर से निशाना बनाया गया था। वॉलेस ने अपनी बंदूक में गोलियां भरीं और पीछे हटकर ध्यान से पेड़ का जायज़ा लेना शुरू किया। वे फ़ौरन चिल्लाया 'जनाब मैं ने उसे देख लिया.... 

उस के फ़ौरन देखे गए शक्स पर गोली दागी और किसी को भी यकीन नहीं हुवा कि एक शरीर जिस ने चुस्त लाल जैकेट और गुलाबी रंग का पजामा पहना हुवा था नीचे गिरा। गिरने में जैकेट सीने की जगह से फट गयी थी जिस से पता चला कि वह औरत थी. वह पुराने अंदाज़ की भारी घुड़सवार सेना की 2 पिस्तौल से लेस थी, जिस में से एक भरी हुयी अब भी आधे से ज्यादा गोलियों से भरी थी। उस ने हमले की पूरी तैयारी की थी, पेड़ पर बैठने के लिए बाकायदा एक जगह बनाई थी। उस ने आधा दर्ज़न से ज्यादा फौजियों को मारा था. 

1857 की अनकही हैरत अंगेज़ दास्तानें  इस्लाम शम्सुल फ़ारोस  

Thursday, January 2, 2025

रामपाल मौर्य कौशांबी के स्वतंत्रता सेनानी


 

रामपाल मौर्य कौशांबी के स्वतंत्रता सेनानी

रावेंद्र प्रताप सिंह

इलाहाबाद विश्वविद्यालय

रामपाल मौर्य कौशांबी जिले के एक स्वतंत्रता सेनानी थे. उन्होंने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और कौशांबी जिले में ब्रिटिश सरकार के खिलाफ कई आंदोलनों में भाग लिया।


रामपाल मौर्य एक प्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानी थे। इनका जन्म 1917 में अठसराय तहसील, सिराथु जिला, इलाहाबाद (जो अब कौशाम्बी जिले के नाम से जाना जाता है) में हुआ था। इनके पिता का नाम माधव प्रसाद मौर्य था. इलाहाबाद में महात्मा गांधी के साथ एक बैठक में भाग लेने के बाद, वह उनकी विचारधाराओं से बहुत प्रभावित हुए, जिसके कारण वह अपने परिवार से अलग हो गए और स्वतंत्रता संग्राम में शामिल हो गए। वह 1942 में महात्मा गांधी द्वारा शुरू किए गए अंग्रेजों भारत छोड़ो आंदोलन का हिस्सा बन गए, जहाँ उन्होंने जोश से "करो या मरो" का नारा लगाया। उन्होंने सविनय अवज्ञा के विभिन्न कृत्यों में भाग लिया, जैसे कि रेलवे ट्रैक काटना और बॉम्बे नहर को बाधित करना, जिसके परिणामस्वरूप उन्हें अंततः कारावास हुआ। रामपाल को इलाहाबाद जिले की नैनी जेल में नौ महीने के कठोर कारावास की सजा सुनाई गई। 1947 में भारत को स्वतंत्रता मिलने और गुलामी की बेड़ियों से मुक्त होने के बाद, वह अपने गाँव अठसराय लौट आए और अपने परिवार के साथ फिर से जुड़ गए। भारत के स्वतंत्रता संग्राम में उनके योगदान के सम्मान में, भारत सरकार ने 1972 में भारत की स्वतंत्रता की पच्चीसवीं वर्षगांठ के अवसर पर उन्हें ताम्रपत्र प्रदान किया। रामपाल मौर्य का 1980 में निधन हो गया। स्वतंत्रता की लड़ाई में उनके अमूल्य योगदान को हमेशा याद किया जाएगा और सम्मानित किया जाएगा।


स्वतंत्रता संग्राम सेनानी कल्याण परिषद उत्तर प्रदेश लखनऊ द्वारा परिचय पत्र जारी किया गया.



रावेंद्र प्रताप सिंह

एम.ए  (इलाहाबाद विश्वविद्यालय)

8853656431, ravendras3287@gmail.com,Social Media

 

 

 

 

 


 

Monday, October 28, 2024

कौशांबी एक प्राचीन (एतिहासिक) नगर

कौशाम्बी एक प्राचीन और एतिहासिक नगर

रावेंद्र प्रताप सिंह

पूर्व छात्र भवन्स मेहता महाविद्यालय, भरवारी कौशाम्बी

कौशाम्बी वत्स जनपद की राजधानी, प्रेम कथाओं के नायक वत्सराज उदयन की कर्मस्थली, बौद्ध धर्म का केंद्र तथा गौतम बुद्ध की विहारस्थली होने के कारण भारतीय एवं विश्व के इतिहास मे प्रसिद्ध हैं. जिसकी पहचान निश्चित रूप से, इलाहाबाद से 52 किलोमीटर की दूरी पर दक्षिण-पश्चिम में यमुना नदी के किनारे स्थिर वर्तमान कौशाम्बी जनपद के कोसम गाव के रूप में प्राप्त भग्नावशेषों के आधार पर की गई हैं। पालि ग्रंथों में इसका वर्णन वत्सराज उदयन की राजधानी एक बौद्ध नगर के रूप में किया गया हैं। लेकिन एस नगर का अस्तित्व छठी शताब्दी ईसा पूर्व बुद्ध के आगमन से पहले, अत्यंत प्राचीन काल से मिलता हैं जिसमें पूर्व में राज करने वाले राजाओं का भी उल्लेख मिलता हैं. कौशाम्बी के बसाये जाने के विविध विवरण हैं, बुद्ध के काल में कौशाम्बीरज वत्स देश से और उदयन वत्सराज के नाम से जाने जाते हैं। कौशाम्बी को भारतीय पुरातत्व के मानचित्र पर रखने का श्रेय अलेक्जेंडर कनिघंम को हैं, जिन्होंने 1861 0 में यहाँ की यात्रा की थी और अपने सर्वेक्षण के आधार पर वे इस नतीजे पर पहुचें थे कि कोसम ही प्राचीन कौशाम्बी था। कौशाम्बी का उल्लेख उत्तर वैदिक काल के ब्राम्हण ग्रंथों तथा उपनिषदों में भी मिलता हैं।

  1. शतपथ ब्राह्मण में कौशाम्बी के मूल निवासी प्रोति कौशाम्बे का उल्लेख है.

  2. महाभारत और रामायण से कौशाम्बी की प्राचीनता की पुष्टि होती है

  3. जैन ग्रंथों में भी कौशाम्बी का उल्लेख है

  4. अशोक ने कौशाम्बी में प्रस्तरस्तंभ पर अपनी धर्मलिपियां उत्कीर्ण करवाई थीं


रामायण में विश्वामित्र कहते हैं कि पूर्व काल में कुश नाम के एक महातपस्वी राजा हुए वैदर्भी उनकी पत्नी थी उनके चार पुत्र थे- कुशाम्ब, कुशनाम, असूर्तराज और वसु सबने अपने लिए प्रथक-प्रथक नगर बसाया. महातेजस्वी कुशाम्ब ने कौशाम्बी, कुशनाम ने महोदय, असूर्तराज ने धर्मारण्य और वसु ने गिरिवज्र नगर बसाया। बौद्ध ग्रंथ "आगंतुर निकाय" के अनुसार छठवी शताब्दी ई०पू० में कौशाम्बी वत्स महाजनपद की राजधानी थी और यह गौतम बुद्ध के काल में छः महत्वपूर्ण नगरों में गणना की गई थी; अन्य नगर चम्पा, राजगृह, श्रावस्ती, साकेत तथा वाराणसी थे। छठवी शताब्दी ई० पूर्व० में उदयन यहाँ के शासक थे। प्रारम्भिक बौद्ध परंपरा के अनुसार गौतम बुद्ध यहाँ अपने जीवन के दो वर्षावास किएसन्न 399 से 414 ई० के मध्य भारत की यात्रा पर आये हुए चीनी बौद्ध यात्री फ़ाहियान तथा 629-645 ईस्वी बीच आये, फाह्यान कुमारजी के शिष्य थे और चंद्रगुप्त द्वितीय के शासनकाल के दौरान 5 वीं ईस्वी में भारत आए थे. फ़ाहियान ने पेशावर, कन्नौज, श्रावस्ती, कपिलवस्तु, और सारनाथ जैसे महत्वपूर्ण बौद्ध स्थलों का दौरा किया थाफ़ाहियान ने भारत को एक शांतिपूर्ण देश बताया था.

प्रसिद्ध चीनी यात्री ह्वेनसांग, राजा हर्षवर्धन के शासनकाल में भारत आए, जो भारत में लगभग 15 वर्षों तक रहे और बौद्ध साहित्य का अध्ययन और बौद्ध स्थलों का भ्रमण किया, ह्वेनसांग की कुछ प्रमुख यात्रा स्थल: कान्यकुब्ज (वर्तमान कन्नौज), अयोध्या और साकेत, कौशाम्बी, श्रावस्ती, कपिलवस्तु, लुम्बिनी, कुशीनगर, सारनाथ, वाराणसी, वैशाली जिसकी जानकारी हमें ह्वेनसांग की रचना सी-यू-की और उसके मित्र ह्वीली द्वारा रचित ह्वेनसांग की जीवनी हैं. फ़ाहियान के समय कौशाम्बी में बौद्ध धर्म विहार की स्थिति अच्छी नहीं थी. जिस समय ह्वेनसांग कौशाम्बी पहुचें थे, उस समय बौद्ध विहार ध्वस्त हो चुका था. दिव्यवदान के अनुसार, अशोक ने 84,000 स्तूपों का निर्माण करवाया था, महवंश ने भी इसी प्रकार का वर्णन मिलता हैं। अशोक ने अपने लेखों में भी पाटलीपुत्र, तक्षशिला, सुवर्गिरी तथा तोशाली इत्यादि मुख्य नगरों का वर्णन किया हैं. फ़ाहियान भारत आया तो उसने अशोक द्वारा बनवायी गयी अनेक कृतियों को देखा था. जिसका वर्णन उसने किया हैं, कल्हण ने कश्मीर में श्रीनगर की स्थापना का श्रेय भी अशोक को दिया हैं, कल्हण ने अपने ग्रंथ राजतरंगिणी में वर्णन किया है कि वितस्ता नदी के तट पर अशोक द्वारा जिस श्रीनगर का निर्माण कराया गया था, उसमें 96 लाख घर थे. कौटिल्य ने अपने अर्थशास्त्र में कौशाम्बी के वस्त्र उद्धोग का वर्णन भी किया हैं, उसने वत्स कौशाम्बी के सूती वस्त्रों को श्रेष्ठ बताया हैं। मत्स्य पुराण के अनुसार जब हस्तिनापुर नगर गंगा नदी की बाढ़ में बह गया, तो तत्कालीन कुरु या भारत राजा निचक्षु ने अपनी राजधानी हस्तिनापुर छोड़ कर अपनी राजधानी कौशाम्बी बनाई थी. निचक्षु, अर्जुन के पौत्र परीक्षित के पाँचवे वंशज थे. इस प्रकार कहा जा सकता हैं कि निचक्षु के समय भी कौशाम्बी नगर अपने अस्तित्व में था, इसके अतिरिक्त कौशाम्बी का वर्णन पाली त्रिपिटक, जातक कथाओं, ललितविस्तार, रत्नावली आदि ग्रंथों और चीनी-यात्रियों के यात्रा-वर्णन में भी मिलता हैं.

डॉ हेमचन्द्र राय चौधरी का मत हैं,‘‘मटची द्वारा कुरु राज्य को नष्ट करने की घटना, संभवतः राजधानी के स्थानांतरण का प्रमुख कारण थी। यह भी संभव है कि अभिप्रातारिण शाखा के यज्ञ संबंधी दृष्टिकोण का भी इससे कुछ संबंध हो।'’ आगे वे यह भी कहते हैं,‘‘संख्यायन श्रौतसूत्र के अनुसार, यज्ञ के समय वृद्धद्युम्न से कोई त्रुटि होने से एक ब्राम्हण ने श्राप दिया कि एक दिन कुरुक्षेत्र से कुरुवंश निष्कासित कर दिया जायेगा और फिर हुआ ऐसा ही'’

तिब्बती परंपरानुसार गौतम बुद्ध ने स्वयं उदयन को बौद्ध संघ में दीक्षित किया था, किन्तु पालि साहित्य के अनुसार बौद्ध संघ के विशिष्ट पिण्डोल भारद्वाज ने उन्हें बौद्ध धर्म में दीक्षित किया था, न कि गौतम बुद्ध ने। भले ही गौतम बुद्ध ने स्वयं राजा उदयन को दीक्षा न दी हो, परंतु कौशाम्बी में उनका आगमन अनेकों बार हुआ था, यहाँ उन्होनें अपने सूत्रों का उपदेश दिया और भिक्षु-संघ की स्थापना की। राजा उदयन के पुत्र राजकुमार बोधि भी गौतम बुद्ध के अनुयायी थे। बुद्ध जब भी कौशाम्बी का भ्रमण करते तो वह घोषिताराम विहार में ठहरतें थे और उन्होंने वहाँ पर कई उपदेश दिये थे. बौद्ध ग्रंथों में कुक्कुटाराम, पधारिकराम, बद्रीकाराम आदि कौशाम्बी के कई अन्य प्रसिद्ध विहारों का उल्लेख मिलता हैं. पुराणों व पालि ग्रंथों में उदयन की मृत्यु के उपरांत बोधि(राजकुमार) के चार उत्तराधिकारियों के नाम मिलते हैं, इसके बाद कौशाम्बी संभवतः नंदों के अधीन हो गया था।

कौशाम्बी एक व्यापारिक केंद्र-- मौर्यो के शासन काल में यह नगर प्रसिद्ध राजनीतिक, धार्मिक व व्यापारिक केंद्र था. इसकी महत्ता के कारण ही अशोक ने कौशाम्बी में स्तंभों के ऊपर अपने लेखों को उत्कीर्ण कराया था। मौर्यकाल में यह संभवतः एक प्रांत का अधिष्ठान था. कौशाम्बी अभिलेख से ज्ञात होता हैं कि अशोक ने इस स्थान पर महामात्रों की भी नियुक्ति की थी। कौशाम्बी कुषाण राज्य में भी सम्मिलित था. यहाँ से प्राप्त एक बोधिसत्व-प्रतिमा पर उत्कीर्ण लेख से ज्ञात होता हैं कि यह प्रतिमा कनिष्क के शासन काल के दूसरे वर्ष में यहाँ स्थापित की गई और यह लेख उस पर उत्कीर्ण किया गया. दिघनिकाय के परिनिब्बान सूक्त में बुद्ध और उनके प्रिय शिष्य आनंद के एक वार्तालाप से ज्ञात होता हैं कि कौशाम्बी उस समय एक परिनिर्वाण के लिए कुशिनारा का चुनाव करते हैं तो आनंद कहते हैं, ‘‘भन्ते इस क्षुद्र नगरक में, जंगली नगरक में, शाखा नगरक में, परिनिर्वाण को मत प्राप्त होवें। भन्ते, और भी महानगर हैं जैसे चम्पा, राजगृह, श्रावस्ती, साकेत, कौशाम्बी, वाराणसी। वहाँ परिनिर्वाण को प्राप्त हों। इस प्रकार दिघनिकाय में कौशाम्बी बुद्धकालीन छः महानगरों में सम्मिलित था। यमुना नदी के तट पर स्थित यह अपने समय का एक वैभवशाली व्यापारिक नगर था। तक्षशिला, श्रावस्ती, वाराणसी, राजगृह और वैशाली के समान कौशाम्बी भी धन-धान्य पूर्ण था। कौशाम्बी से प्राप्त प्रस्तर की एक स्तंभ पर दो डील वाले ऊँट की आकृति उत्कीर्ण हैं, कौशाम्बी के व्यापारिक संबंध पश्चिमी देशों तक विस्तारित था। यह नगर नदी के किनारे बसा होने के कारण यहाँ से नदियों से नावं के द्वारा व्यापार होता था इसलिए इसे पत्तन भी कहा गया हैं। कौशाम्बी से मगध के लिए सार्थवाह(प्राचीन भारत में, सार्थवाह का मतलब था व्यापारियों का दल जो एक जगह से दूसरी जगह व्यापार के लिए आता-जाता था. इन दलों का एक प्रमुख होता था) चला करते थे. बैलगाड़ियों, घोड़ा गाड़ियों के द्वारा भी माल की ढुलाई एक जगह से दूसरे जगह को होती थी. जातक कथाओं से ज्ञात होता हैं कि वाराणसी का वाया कौशाम्बी चेदी(बुंदेलखंड) तथा उज्जैन के साथ व्यापारिक संबंध था. उत्तरी-पूर्व से दक्षिण भारत के प्रमुख व्यापारिक नगरों-साकेत, कौशाम्बी, विदिशा, उज्जैनि को जोड़ता था। एक अन्य प्रमुख मार्ग दक्षिण भारत को दक्षिण पूर्व को जोड़ता था. स्थल से भी व्यापारी कौशाम्बी में व्यापार करते थे. व्यापारी श्रावस्ती, साकेत, होते हुए हस्तिनापुर, पंजाब की ओर जाते थे, वहाँ से फिर उत्तर की ओर यवनों के राज्यों तथा दूसरे-पश्चिम देशों तक नील, हाँथी दांत, कपड़ा, मखमल, जानवरों की खाल, कस्तूरी, इत्र, शीशे की मलाएं, शीशे के बर्तन आदि वस्तुओं का व्यापार करते थे। वापस में चीनी, रेशन, मृतिका, शिल्प, रोगन, दालचीनी, शराब जानवरों की खालें लाते थे। विनय पिटक से ज्ञात होता हैं कि इलाहाबाद से दक्षिण-पश्चिम 8 किलोमीटर पर स्थिति वर्तमान भीटा के रूप में पहचान की गई हैं। पूरब की ओर यह जलमार्ग गंगा के सहारे काशी, मगध, चम्पा होते हुए गंगा के मुहाने से बर्मा तक जाता था। यह मार्ग पाटलीपुत्र, कपिशा की बड़ी राजधानियों को मिलाता था. कौशाम्बी वह केंद्र था जहां से यह दक्षिण-पश्चिम की ओर उज्जैनी होते हुए भरुकच्छ जो समुद्र पारीय व्यापार का मुख्य बन्दरगाह था और सुदूर दक्षिण प्रतिष्ठान पूरी(पैठन) को जोड़ता था। इसे कांतार पथ भी कहते थे। इसलिए कौशाम्बी माल के आयात और निर्यात का प्रमुख केंद्र बन गया था.

 वत्सराज उदयन और उनका जीवन-- वत्सराज उदयन महात्मा बुद्ध के समकालीन के शासक और एक एतिहासिक पुरुष थे, वह सर्वगुण सम्पन्न राजकुमार थे. वह वीणा वादन और हाथियों को वश में करने की कला के लिए सर्वविदित थे. संस्कृत नाटकों में उन्हें दृढ़मूल प्रेम निपुण, पवित्र, लोकप्रिय और राजधर्म का आचार्य कहा गया हैं। उसका प्रेम इतना उदात्त थे कि उसका अहं भाव भी उसके प्रेम निमग्न हो गया था। पर वह राजनीति से उदासीन भी नहीं था. किन्तु धममपद की बुद्धघोष की टीका में उदयन के पिता का नाम परंतप दिया गया हैं। इसके अनुसार उदयन जब गर्भ में था, इसकी माता (तमिल परंपरा में मृगावती; भास के अनुसार विदेह कुमारी) को एक पक्षी उठा ले जाता हैं और उसे जंगल में एक ऋषि आश्रम के पास छोड़ देता हैं। जहां उदयन का जन्म होता हैं, यह बालक ऋषि के संरक्षण में जंगली हाथियों को वश में करने की कला सिखाता हैं, उसे एक वीणा भी मिलती हैं। उदयन अपने पिता सिंहासन,उनकी मृत्यु के पश्चात, अपनी माता से प्राप्त राज चिन्हों के माध्यम से ग्रहण करता हैं. भारतीय साहित्य में उसे प्रेम कथाओं के नायक के रूप में चित्रित किया गया है। वह बहपत्नीक था। परंतु यह बात ध्यान रखने की है कि उसके हर विवाह के पीछे कोई न कोई राजनैतिक आकांक्षा छिपी मिलती है। उसके समय पड़ोस के अवन्ति में प्रधोंत नामक राजा राज्य करता था। बौद्ध साहित्य में उसे पज़्जोत कहा गया है। दोनों ही राज्य साम्राज्यवादी थे. धम्मपद अट्ठाकथा के अनुसार प्रधोंत ने एक चातुर्यपूर्ण युक्ति से हाथी के आखेट में उदयन को पकड़वा लिया और उसे अपनी पुत्री वासवदत्ता को वीणा की शिक्षा देने के लिए नियुक्त किया। दोनों में प्रेम हो गया अंत में वत्सराज उदयन ने प्रधोंत की कन्या वासवदत्ता का अपहरण कर उससे विवाह कर लिया। इस विवाह से दोनों देशों के बीच मैत्री संबंध स्थापित हो गया, कहा जाता है कि इस विवाह के बाद विलासिता में पड़ने के कारण उदयन के राज्य का कुछ भाग पर आरुणि नाम के पड़ोसी राजा ने अधिकार कर लिया। इसे मुक्त कराने के लिये उसके कुशल मंत्री ने उदयन का विवाह मगध राज दर्शक की बहन पद्मावती से करा दिया। अवन्ति और मगध के साथ मैत्री संबंध स्थापित होने के बाद उदयन ने अपने खोए राज्य को आरुणि से पुनः प्राप्त कर लिया। भास के अनुसार आरुणि नाम काशी नरेश का था। तिब्बती साक्ष्य उसका नाम आरनेमि बताते हैं। उदयन की दूसरी रानी सामावती थी। उसके विवाह की कथा भी रोचक है। सामावती भद्दवती देश के श्रेष्ठि भद्रवतिक की कन्या थी। अकाल पड़ने के कारण सामावती अपने देश को छोड़ कर कौशाम्बी के सेठ घोषिता के पास या गई, जिसे उसने अपनी धर्म पुत्री की तरह पाला। प्रथम दर्शन में ही प्रेम होने के कारण, उदयन ने उसे अपनी राजमहिषी बनाया जिसकी सेवा में पाँच सौ परिचरिकाएं लगी रहती थीं। सामावती बुद्ध की परम भक्त थी । अंगूतर निकाय में उसे मैत्री भावना में सबसे अग्र कहा गया है। इस विवाह से उदयन की आर्थिक शक्ति सुदृढ़ हुई होगी। प्रियदर्शिका के अनुसार उदयन अंग नरेश दृढ़वर्माको कलिंग राज के बंधन से मुक्त कराता है और इस संबंध को दृढ़करने के लिये उसकी पुत्री आरण्यका से विवाह करता है। जातक कथा में सुँसुमागिरी का भाग वत्स का अधीन राज्य कहा गया है। उदयन की राज्य सीमा पर विंध्य प्रदेश का आदिवासियों का नेता पुलिंदक था। उसने भी उदयन की अधीनता स्वीकार कर ली थी। क्योंकि उदयन जब अवन्ति से या रहा था तो पुलिंदक ने उसका स्वागत किया था। उदयन की कौशाम्बी स्वयं ऊँची प्राचीरों से घिरी थी जिसके बाहर की ओर खाइयाँ थीं। भीतर अनेक उद्यान थे, संरक्षित वन थे। उनकी रखवाली के लिये रक्षक थे। यह निश्चित नहीं कहा जा सकता कि राजा उदयन की कितनी संताने थी और उसके बाद वत्स का उत्तराधिकारी कौन हुआ। पुराण वहीनर का नाम लेते है। बौद्ध ग्रंथ उदयन के पुत्र का नाम बोधि बताते हैं। कथा सरित्तसागर उसका नाम नरवाहन दत्त बताता है। जैन ग्रंथों में कौशाम्बी नरेश की विदुषी पुत्री जयंती का उल्लेख है। इसने महावीर स्वामी से वाद-विवाद किया था और जैन धर्म में दीक्षित हो गई थी। जो भी हो, उदयन के पश्चात कोई राजा शक्तिशाली न हुआ जो वत्स-राज को अक्षय रखता। पुराणों वहीनर के बाद क्रमशः दंडपाणि, निरामित्र और क्षेमक का उल्लेख करते हैं। परंतु इनके समय में वत्स राज की अवनति होती गई और अंत में, यह मगध राज्य में विलीन हो गया।

कौशाम्बी-मौर्य काल और उसके बाद--मैंआपको कौशाम्बी के इतिहास की ओर पुनः ले चलता हूँ. जैसा पूर्व में कहा गया कि क्षेमेन्द्र के बाद वत्स राज ने अपनी स्वतंत्रता खो दी और मगध राज्य मे मिल गया। ईसा पूर्व 321 में चन्द्रगुप्त मौर्य ने नंदों का नाश कर मगध का राज्य हस्तगत किया। पुरालेखों से ज्ञात होता है कि कौशाम्बी अशोक के साम्राज्य का एक जनपद था और जैसा प्रयाग के स्तंभ लेख में है, उसका शासन एक महामात्य के अधीन चलता था। संभवतया, यह स्तंभ कौशाम्बी से प्रयाग मुग़ल काल के दौरान में लाया गया हैं। कौशाम्बी में यह अपने मूल रूपमें स्थापित था। कौशाम्बी में एक मुद्रा प्राप्त हुई है जिस पर 'परिवेदना' शब्द ब्राह्मी लिपि में अंकित है; जो करीब ईसा पूर्व 300 की है। एरियन कौशाम्बी को मौर्यकाल का प्रसिद्ध नगर बताता है। मौर्यो के बाद कौशाम्बी शुंग साम्राज्य का अंग बन गया। लेकिन पाचवें शुंग शासक ओद्रक के समय यह स्वतंत्र राज्य हो गया। यहाँ तक की राजा बहसति मित्रने क्षेत्राधिकार के नाते अपने नाम का सिक्का चलाया जिस पर अशोक कालीन ब्राह्मीलिपि में 'बहसतिमितस्' अंकित हैं। कोसम से पाये गये चार ताँबे के सिक्कों पर उसका नाम लिखा है जिन्हें दूसरी शती ईसा पूर्व का बताया गया है। बहसति मित्र को मथुरा जिले के मोर लेख की यशोमति का पिता कहा गया है जिसका विवाह मथुरा के राजा से हुआ था। कौशाम्बी में इसी नाम के एक राजा ने ठप्पेदार सिक्के जारी किये थे। इसका मामा पांचाल का असधसेंन था जिसका पभोसा (कौशाम्बी से 2-3 किलोमीटर दूर) अभिलेख में उल्लेख है। पुष्यमित्र के बाद ग्रीक आक्रमणों से शुंग शासन का अंत हो गया और अनेक स्वतंत्र रजवाड़ों ने शिर उठा लिया, कौशाम्बी में भी यही हुआ। 255 ई० पूर्व० से 185 ई०पू० के पुरातात्विक साक्ष्यों के कौशाम्बी में मिलने से संकेत मिलता है कि यह यवन राज ड़ेमेट्रियस रहा होगा जिसने दूसरी शती ई०पू० के आरंभ में यहाँ आक्रमण किया था। अंगराज का एक तांबे का सिक्का जिस पर दूसरी शती ई०पू० ब्राह्मी लिपि में 'अगरजस' लिखा है, भी यहाँ से प्राप्त हुआ है। कौशाम्बी में कुछ सिक्के मिले हैं जिनपर अंकित नामों के अंत में मित्र मिलता है। ये कौशाम्बी के अज्ञात राजे हैं जिनकी पहचान अभी तक नहीं की जा सकी है। सिक्कों से ज्ञात कौशाम्बी के अन्य राजे ज्येष्टमित्र, प्रौष्यमित्र, वरुणमित्र, पुष्यमित्र, अश्वघोष और पर्वत हैं। सारनाथ के अशोक स्तंभ पर ब्राह्मी लिपि में एक लेख है जो अश्वघोस के शासन के चौदहवें वर्ष के शक सिक्कों से मेल खाता है। यदि सारनाथ के लेख और कौशाम्बी से प्राप्त सिक्के एक ही शासक के हैं तो इससे संकेत मिलता है की वाराणसी कौशाम्बी राज्य में सम्मिलित था और यह अश्वघोष, कनिष्क का शासन होने से पहले, कौशाम्बी का अंतिम शासक था। कौशाम्बी से प्राप्त बुद्ध की एक प्रतिमा पर भिक्षुणी बुद्धिमित्र के एक खुदे लेख के अनुसार कनिष्क ने 80ई० में कौशाम्बी पर विजय पाई थी। शक और कुषाणों की कौशाम्बी में उपस्तिथि यहाँ से प्राप शक-पार्थियान मृण मूर्तियों से होती है जो एक प्रकार की देवियों की प्रतिमाएं हैं। ये निम्म प्रकार की हैं;

  1. मातृदेवी का मंदिर जिनमें अनेक पुजारी बैठ कर गाना गा रहे हैं।

  2. मुकुट पहले हुए मातृदेवी।

  3. लेटी हुई स्त्री।

  4. टोपी पहले हुए नगाड़े वादक।

इस काल के घोषिताराम में प्राप्त अनेक सिक्कों में कुषाण राजा कनिष्क, हुविष्क और वासुदेव के भी सिक्के मिले हैं। इनके अतिरिक्त अनेक मुहरें भी मिली हैं जिनमें कनिष्क की एक महत्वपूर्ण मुहर है जिस पर "महाराजस्य रजति देव पुत्रस्य, कनिष्कस्य प्रयोग" अंकित हैं। कौशाम्बी से शतमाघ और विजयमाघ नाम के दो राजाओं के सिक्के प्राप्त हुए हैं। संभव है, इस वंश के वे अंतिम शासक रहें हों। मुद्राशास्त्रीय प्रमाणों से ज्ञात होता है कि माघों के बाद 'नव' नाम का एक राजा कौशाम्बी की गद्दी पर बैठा। उसका शासन काल 300-320 ई० है। इसके सिक्के माघ के सिक्कों की नकल है। इतिहासकार के.पी. जायसवाल 'नव' नाम के इस राजा को नाग वंशीय मानते हैं। उनका कहना है कि यह नानवंश का राजा नवनाग है। इसी क्रम में उन्होंने बताया है कि भारशिव नागों का इस क्षेत्र में अहिच्छात्रा से आगरा मथुरा तक शासन था। उनके समय में कौशाम्बी में एक टकसाल थी। यहाँ के सिक्कों पर हिन्दू टकसाल के चिन्ह थे। डॉ. स्मिथ भी उनके मत से सहमत थे. चौथी शताब्दी के मध्य तक, संभवतया, पुष्प श्री नामक राजा कौशाम्बी पर राज्य कर रहा था जिसके उत्तराधिकारी रुद्रदेव को हराकर समुद्रगुप्त ने उसका उल्लेख अशोक के प्रयाग स्तंभ पर अंकित कराया जो अपने मूल स्थान कौशाम्बी में था. इसके बाद कौशाम्बी गुप्त सम्राटों की अधीनता में आ गयी। इसकी पुष्टि स्कंदगुप्त की बनवाई हुई कौशाम्बी से प्राप्त एक शिव पार्वती की प्रतिमा पर उत्कीर्ण लेख से होती है। गूप्तों के समय में चीनी यात्री फ़ाहियान यहाँ आया था। उसने कौशाम्बी को पत्तन मृगदाव विहार (सारनाथ) से तेरह योजन की दूरी पर स्थित बताया है। यहाँ उसने गोक्षीर वन विहार (घोषितराम विहार) देखा था। उसमें भिक्षु संघ रहते थे। प्रायः वे हीनयानानुयायी थे। गूप्तों के बाद कौशाम्बी पर हूणों का अधिकार हो जाता है। यह तथ्य कौशाम्बी के घोषितराम में खुदाई से प्राप्त दो मुहरों से ज्ञात होता है। एक पर हूँणराजा तोरमाँण का उल्लेख है और दूसरी पर उसी का ' हूँणराजा' नाम आता है। तोरमाँणने इस क्षेत्र पर 510-515 ई० के बीच विजय पाई थी। हूँणो द्वारा तबाह किये जाने के कारण कौशाम्बी आगे संभाल नहीं सकी। हर्ष के शासन काल में यह प्रदेश कन्नौज शासक के अधीन या गया। ह्वेनसांग जो हर्ष के साथ प्रयाग समारोह में रहा, कौशाम्बी जाता है। उसके अनुसार यह देश 6000 मील के क्षेत्र में तथा इसकी राजधानी 30 मील में फैली थी। अच्छी उपज के लिये यहाँ की भूमि मानी जाती थी। चावल और गन्ना यहाँ पर्याप्त होता था। जलवायु बहुत गर्म, लोगों के व्यवहार कठोर और रूखे था। वे विद्या के प्रेमी और धार्मिक जीवन और नैतिकता में सदा तत्तलीन रहने वाले थे। यहाँ करीब तीन सौ भिक्षु रहते थे और हीनयान ग्रंथों का अध्ययन करते थे। वहाँ करीब पचास देवों के मंदिर थे और बौद्धेतरों की संख्या अधिक थी। ह्वेनसांग आगे कहता है, नगर के एक पुराने राजप्रासाद में करीब साठ फीट ऊँचा एक विशाल विहार था। इसमें बुद्ध की एक चंदन की मूर्ति थी जिसके ऊपर पत्थर का एक छत्र लगा था। इसे राजा उदयन ने बनवाया था। यह मूर्ति के निर्माण के बारे में बताता है। वह आगे कहता है, इस विहार से सौ कदमों की दूरी पर चार बोधि सत्वों के टहलने और बैठने के चिन्ह विद्यमान थे। इसके बगल में एक कूप था जिसमें पानी भी था। इससे तथागत स्नान करते थे। बगल में स्नान घर भी था, स्नान घर नष्ट हो चुका था। नगर के दक्षिण पूर्व, पास में ही, एक पुराना संघाराम है। यहीं धोषिर का एक बगीचा था। इसमें अशोक का बनवाया एक दो सौ फुट ऊँचा स्तूप है। यहाँ तथागत ने अनेक वर्षों रह कर धर्म की शिक्षा दी थी। इस स्तूप के बगल में चारों बधिसत्वों के टहलने और बैठने के प्रतीक थे। यहाँ भी एक स्तूप था जसमें बुद्ध के अवशेष रखे थे. कौशाम्बी के अपने एक वर्णन में ह्वेनसांग एक और मत्वपूर्ण उल्लेख करता है। वह बताता है की संघाराम के दक्षिण-पूर्व में एक दो मंजिले भवन में ईटों का बना एक पुराना कमरा था जिसमें बुद्धबंधु बोधिसत्व रहते थे। इस कक्ष में उन्होंने 'विद्यमान सिद्दि शस्त्र' की रचना की थी जसमें उन्होंने हीनयान और बौद्धेतर संप्रदाय के सिद्धनतों का प्रत्याख्यान किया था। संघराम के पूरब में एक आम्रवन के बीच एक घर की नीव उसने देखि थी जसके कमरे में रहकर असंग बोधिसत्व ने 'हीन-यांग-शिंग-कियू' की रचना की थी। हर्ष के बाद भी कन्नौज के शासन के आधीन रहा जहां गुर्जर और प्रतिहार राजाओं का शासन था। अंतिम प्रतिहार राजा यशपाल (1027 -1036ई०) के कड़ा पट्टिका लेख के अनुसार कौशाम्बी कन्नौज शासन का एक मण्डल था। लेकिन एक महत्वपूर्ण राजनैतिक इकाई के रूपमें यह अपना महत्व खो चुका था।

कौशाम्बी एक पुरातत्व विमर्श-- ह पुरस्थल इलाहाबाद शहर से लगभग 52 किलोमीटर की दूरी पर दक्षिण-पश्चिम दिशा में यमुना नदी के बायें किनारे पर स्थित है। कौशाम्बी को भारतीय पुरातत्व के मानचित्र पर रखने का श्रेय अलेक्जेंडर कनिघंम को हैं, जिन्होंने 1861 0 में यहाँ की यात्रा की थी और अपने सर्वेक्षण के आधार पर वे इस नतीजे पर पहुचें थे कि कोसम ही प्राचीन कौशाम्बी था। कौशाम्बी में पुरातत्व सर्वेक्षण की ओर सन्न 1936 -37 में ए०जी०मजूमदार ने उत्खनन कार्य प्रारंभ किया था। लेकिन यह कार्य दो उत्खनन सत्र 1937-38 ही चल पाया था कि मजूमदार की बलूचिस्तान में पुरातात्विक अन्वेषण के दौरान हत्या कर दी गई। मजूमदार ने मुख्यतः अशोक स्तंभ के पास स्थित क्षेत्र में उत्खनन कार्य कराया था। इलाहाबाद विश्वविद्यालय की ओर से स्वर्गीय जी०आर० शर्मा ने सन्न 1949 से लेकर 1964-65 तह यहाँ का उत्खनन कराया था। कौशाम्बी के टीले में मानव आवास के चिन्ह लगभग 6.45 किमी की परिधि में फैले हुए हैं। कौशाम्बी का टीला एक जटिल रक्षा-प्राचीर (परकोटे) से घिरा हुआ था जो आयताकार रूपमें फैली हुई है। इस परकोटे का आधार यमुना नदी है जिससे रक्षा प्राचीर अर्द्ध वृत्त बनाती है। कौशाम्बी में अभी तक चार विभिन क्षेत्रों में उत्खनन हुए हैं।

  1. अशोक स्तंभ क्षेत्र

  2. घोषिताराम विहार क्षेत्र

  3. पूर्वी प्रवेश द्वार के पास रक्षा प्राचीर

  4. राज प्रसाद क्षेत्र


अशोक स्तंभ क्षेत्र -- कौशाम्बी के टीले के मध्यवर्ती भाग में जहां पर भारतीय पुरताव सर्वेक्षण की ओर से एन. जी.मजूमदार ने उत्खनन कराया था, वहाँ पर अशोक का लेख रहित एक पाषाण स्तंभ मलवे में दबा हुआ मिला था। उसको उसी स्थान पर खड़ा कर दिया गया है। इसलिए इस क्षेत्र को अशोक स्तंभ क्षेत्र नाम दिया गया है। सन्न 1949 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय ने भी इसी क्षेत्र में उत्खनन कार्य आरंभ किया था। अशोक स्तंभ के पास के क्षेत्र में मुख्यरूपेण तीन सांस्कृतिक काल प्रकाश में आए जिन्हें धूसर संस्कृति, एन. बी.पी संस्कृति तथा उत्तर एन बी पी संस्कृति के नाम से अभिहित किया गया है। प्राप्त पात्र खंडों की संख्या भी सीमित है। एन बी पी संस्कृति से संबंधित निर्माण के आठ धरातल प्रकाश में आये जिनमें प्रथम पाँच के निर्माण में मिट्टी अथवा कच्ची ईटों का प्रयोग हुआ है। ऊपरी तीन धरातल पकी ईटों के है। कौशाम्बी के मित्र शासकों के सिक्के जिन्हें पुरालिपि शास्त्र के आधार पर द्वितीय शती ईसा पूर्व रखने का आग्रह किया गया है। शक, पार्थियान तकनीक पर बनी मिट्टी की मूर्तियां, कुषाणों के सिक्के आदि पुरावशेष ऊपरी धरातल से मिले है। संभवतः इस क्षेत्र में आवास की निरन्तरता गुप्त युग तक चलती रही। इस स्थल के उत्खनन में न केवल मिट्टी के बर्तनों के संदर्भ में अपितु मिट्टी की मूर्तियों, सिक्कों तथा अभिलेखों के संदर्भ में भी महत्वपूर्ण सूचनाएं उपलब्ध हुई हैं। कौशाम्बी में पकी ईटों की बनी हुई ढकी और खुली नालियाँ तथा मिट्टी के पाइपों की बनी हुई सार्वजनिक नालियाँ इस काल के स्तरों में मिली हैं। इस प्रकार के प्रबंध सफाई एवं स्वच्छता के परिचायक हैं।

घोसीताराम विहार क्षेत्र -- कौशाम्बी के टीले के पूर्वी भाग में घोषिताराम विहार के ध्वंशावशेष विद्धमान हैं। इसका उत्खनन इलाहाबाद विश्वविद्यालय ने 1951 से 1956 ई के बीच में कराया था। घोषिताराम के उत्खनन के फलस्वरूप एक विहार में आया है जिसकें निर्माण के सत्रह स्तर प्रकाश में आये हैं। घोषिताराम के क्षेत्र में सम्पन्न हुए उत्खनन से पता चलता है कि कौशाम्बी के इस हिस्से में मानव के आवास की परंपरा उत्तरी कालो चमकीली (एन बी पी) पात्र- परंपरा के प्रचलन के साथ प्रारंभ हो गई थी क्योंकि इस क्षेत्र के सबसे निचले स्तरों से इस पात्र परंपरा के पात्र-खंड उपलब्ध हुए हैं। उत्खनन के फलस्वरूप जो विहार प्रकाश में आया है, वह विहार और चैत्य के मिले-जुले रूपमें था। उसका प्रमुख प्रवेश द्वारा पश्चिम की ओर था। विहार के प्रवेश-द्वार के बगल में हारीति एवं कुबेर का एक चैत्यगृह प्रकाश में आया है जिसमें हारीति, गजलक्ष्मी और कुबेर की विशालकाय मूर्तियाँ स्थापित थीं। विहार के बीच में एक आँगन था जिसके उत्तरी एवं पूर्वी भागों में भिक्षु-भिक्षुणीयों के रहने के लिए छोटे-छोटे कक्ष बने हुए थे जनके आगे बरामदे थे। पश्चिम हिस्सा खुले मैदान के रूपमें था जहाँ भिक्षु इककट्ठा होते थे। इसका आकार 24.70 मीटर था। इसके अतिरिक्त एक अण्डाकार स्तूप तथा तीन छोटे-छोटे स्तूपों के अवशेष भी प्राप्त हुए है। घोषिताराम विहार के उत्खनन से प्रस्तर की प्रतिमाएँ, मिट्टी की बहुसंख्यक मूर्तियाँ, सिक्के, अभिलेख तथा मुहरें मिलती हैं। द्वितीय शताब्दी ईसा पूर्व में जिस समय भरहुत, साँची तथा बोधगया में अमर कृतियों का सृजन हो रहा था, कौशाम्बी का एक तक्षक (मूर्तिकार) शांत नहीं बैठा हुआ था। घोषिताराम विहार से अंकन की एसी कलाकृतियाँ मिली हैं जिनपर बुद्ध का प्रतीकों के माध्यम से अंकन किया गया है। कौशाम्बी के घोषिताराम विहार से कुषाण काल की लेखयुक्त कतिपय प्रतीमाएँ मिली है जिनका निर्माण तो मथुरा में हुआ था लेकिन बौद्धधर्म का एक प्रसिद्ध केंद्र होने के कारण जिसकी स्थापना भिक्षुणी बुद्धिमित्रा ने कौशाम्बी में कराई थी। घोषिताराम में मृणमूर्तियाँ भी बड़ी संख्या में मिली हैं। इनमें मौर्य-शुंग तथा शक-पार्थियान कालों की मिट्टी की मूर्तियाँ अधिक संख्या में हैं। शक-पार्थियन मृणमूर्तियों में तिकोनी शिरोवेश-भूषा से युक्त मातृदेवी तथा मृदंग वादक आदि की मुट्टी की मूर्तियाँ उल्लेखनीय हैं। कौशाम्बी के घोषिताराम के उत्खनन से प्राप्त रजत एवं ताम्र आहत मुद्राएँ तथा लेख रहित ढले हुए सिक्के पाँचवीं-चौथी शताब्दी ई०पू० में प्रचलन में आये। इनके अलावा कौशाम्बी के स्थानीय सिक्के, कुषाण और मगध राजाओं के सिक्के विशेष रूपसे उल्लेखनीय हैं। प्राचीन भारतीय इतिहास के आर्थिक तथा अन्य पक्षों पर इसमें प्रकाश पड़ता है। मणि-माणिक्य, मिट्टी तथा हड्डी के बने हुए मनके बहुत बड़ी संख्या में मिले हैं जो तत्कालीन लोगों के सौन्दर्यबोध के साथ-साथ निर्माता शिल्पियों के हस्तलाघव के मूल साक्षी हैं। घोषिताराम से प्राप्त पुरातात्विक साक्ष्य यह इंगित करते है कि छठवीं शताब्दी ईस्वी के प्रथम दशक में यहाँ पर हूण आक्रमण हुआ। हूणों की लूट-पाट एवं आगजनी का शिकार घोषिताराम बौद्ध विहार भी हुआ। घोषिताराम के उत्खनन से मिट्टी की दो मुहरें मिली हैं इनमें से एक तरफ तोरमाँण नाम प्रतिमुद्रांकित है तथा दूसरी तरफ पर हूँणराज उत्कीर्ण है। तोरमाँण का मध्यप्रदेश के सागर जिले में स्थित एरण नामक स्थान से एक अभिलेख मिला है जिसकी तिथि 510ई निर्धारित की गई है। इस आधार पर घोषिताराम पर आक्रमण का समय सन्न 510 से 1515 के बीच में अनुमानित किया जा सकता है।

कौशाम्बी की रक्षा--प्राचीर: कौशाम्बी में तीसरा उत्खनित क्षेत्र पूर्वी प्रदेश द्वार के पास स्थित है। यहाँ पर उत्खनन कार्य सन्न 1957-59 ई के बीच कौशाम्बी रक्षा प्रणाली के इतिहास के अध्ययन तथा मूल रक्षा प्राचीर (परकोटे) और बाद के परिवर्तन-परिवर्धन की प्रकृति और प्राचीरता का पता लगाने के उद्देश्य से किया गया। कौशाम्बी के तीन ओर एक रक्षा-प्राचीर थी जिसकी ऊँचाई आस-पास के समतल मैदान से 9 से 10 मीटर के बीच हुए बुर्जों की ऊँचाई 21 से 35 मीटर तक है। परकोटे के तीन ओर गहरी खाई थी। परकोटे में पूर्व, उत्तर एवं पश्चिम दिशाओं में कुल मिलाकर ग्यारह द्वार थे जिनमें से पाँच प्रमुख द्वार थे तथा छः गौण। उत्तर दिशा में एक तथा पूर्व और पश्चिम दिशाओं में दो-दो मुख्य द्वार थे। पूर्वी द्वार के सामने बाँध की तरह की मिट्टी का आज एक टीला जैसा है जो प्रमुख द्वार के मार्ग के लिये आवरण प्राचीर का काम करता था। इस बाँध की अधिकतम लंबाई 105 मीटर तथा चौड़ाईं 27 मीटर है। इस बाँध और परकोटे के बीच में 7.50 मीटर चौड़ा एक मार्ग था। बाँध से लगभग 75 मीटर की दूरी पर खाई के दूसरी ओर 72.50 मीटर लंबा और 27 मीटर लंबा चौड़ा एक बुर्ज था। इस भाग में खाई की अधिकतम चौड़ाई 45 मीटर थी। पूर्वी द्वार के पास के क्षेत्र में किये सघन पुरातात्विक अन्वेषण से ज्ञात हुआ कि रक्षा-प्राचीर के ऊपर का दक्षिणी बुर्ज, आवरण प्राचीर के पास परकोटे का अंतिम भाग-ये सभी पूर्व से पश्चिम की ओर जाने वाली एक सीधी रेखा पर थे, इसलिए इस क्षेत्र को उत्खनन के लिए चुना गया और यहाँ एक खंती डाली गई जिसे बाद में उत्तर, दक्षिण तथा पश्चिम दिशाओं में आवश्यकतानुसार बढ़ाया गया। इस क्षेत्र के उत्खनन से निर्माण के पच्चीस स्तर प्रकाश में आए है जिन्हें चार सांस्कृतिक कालों में विभाजित किया गया है। प्रथम निर्माण काल से लेकर पच्चीसवें निर्माण काल तक मानव आवास के पुरातात्विक अवशेषों का कुल जमाव 16.50 मीटर मोटा है। यह जमाव इस नगर के मानव आवास के इतिहास का ऊर्ध्वाधर लेख-जोखा है। पच्चीस में से दो स्तर रक्षा प्रणाली के पूर्व काल से संबंधित हैं; बाइस निर्माण काल पाँच विभिन्न रक्षा प्राचीरों से संबंधित है। पच्चीसवाँ निर्माण काल रक्षा प्रणाली के ध्वस्त हो जाने के बाद के काल का है।

राजप्रासाद क्षेत्र: कौशाम्बी का चतुर्थ उत्खनन टीले के दक्षिण पश्चिमी भाग में सम्पन्न हुआ था। इस उत्खनन क्षेत्र को 'राजप्रासाद क्षेत्र' के नाम से अभिहित किया गया है। यहाँ पर भी चार सांस्कृतिक काल प्रकाश में आये-प्रक्-चित्रित धूसर काल, चित्रित धूसर काल, एन. बी. पी. से संबंधित काल एवं उत्तर एन. बी. पी. काल। इस क्षेत्र की सर्वाधिक महत्वपूर्ण उपलब्धि पत्थर की बनी एक लंबी चौड़ी चहारदीवारी है। पुरातात्विक साक्ष्य सूचना देते हैं कि सर्वप्रथम पत्थर की इस दीवार का निर्माण आठवीं शती ईसा पूर्व में किया गया लेकिन यह प्रारम्भिक निर्माण अनगढ़ पत्थरों से किया गया था। यद्यपि इस बात का कोई अभिलेखिक साक्ष्य नहीं मिलता है कि यहां कोई राजपरिवार रहा होगा लेकिन निर्माण की विशालता को देखकर यह अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है कि इस युग के संदर्भ की दृष्टि से उसके राजप्रासाद होने की संभावना प्रबल हो जाती है। यहाँ पर निर्माण का अंतिम चरण द्वितीय शती ईसवी का है और इस धरातल से मेहराब के प्रमाण भी मिलते है। भारत में अरबों के आगमन से प्रारंभ हुआ और वह समय आठवीं शताब्दी 712 ई० समझा जाता है, लेकिन अब कौशाम्बी का साक्ष्य सूचित करता है कि प्रथम तथा द्वितीय शताब्दी ईसवी में भारत की भूमि पर इस तरह के मेहराब बनने लगे थे। इस निष्कर्ष को भी कतिपय पुरविदों ने चुनौती दी है। इस तरह कौशाम्बी के उत्खनन से हमें इस क्षेत्र में मनुष्य के आवास की सूचना बारहवीं शती ई०पू० से लेकर गुप्त युग तक मिलती है। लेकिन मोटे तौर से गुप्त युग के आरंभ से पहले कौशाम्बी का नगर अपना स्वर्णिम काल देख चुका था।

कौशाम्बी और जैन-धर्म: छठे तीर्थंकर पद्धमप्रभ के जन्म से पावन इस कौशाम्बी तीर्थ को जहां जैन तीर्थनकारी जन्म भूमि का गौरव प्राप्त है, वही चौबीसवें बर्द्धमान महावीर की तपोस्थली होने और राजकुमारी चंदनबाला के उद्दार से यह नगरी अत्यंत पवित्र बन गई है। तीर्थंकर पद्धमप्रभ ने यहाँ से कुछ किमी. दूर यमुना के किनारे स्थित पभोसा या प्रभाषगिरी जो कौशाम्बी के उद्यान का पर्वत कहा जाता है, नामक स्थल पर दीक्षा प्राप्त की और अपने जीवन का अधिकांश बभग बीताया। इसलिए यह नगरी अत्यन्त प्राचीन काल से आज तक जैनियों का एक प्रसिद्ध तीर्थ स्थल है। इसके पश्चात धर्मोंपदेश द्वारा जीवों को मोक्षमार्ग में लगाते और पुण्य कर्म के उदय से धर्मात्मा जीवों को सुख प्राप्त कराते हुए भगवान पद्धमप्रभ सम्मेद शिखर पर पहुचें। वहाँ उन्होनें एक माह तक ठहर कर, योग निरोध किया। तदनंतर फाल्गुन कृष्ण चतुर्थी के दिन शाम के समय चित्रा नक्षत्र में उन्होंने समुच्छिन्न-क्रिया प्रतिपाती नामक चतुर्थ शुल्क ध्यान के द्वारा कर्मों का नाश कर निर्वाण प्राप्त किया। 24वें तीर्थकर महावीर स्वामी के मंदिर पर लिखा है,‘‘उत्तरी तट पर सूर्यसूत के नृप कुशाम्ब की कौशाम्बी नगरी है, धरम धुरी इस कौशाम्बी में जैन धर्म बिखरी है।'’ यह सूक्ति अन्यथा नहीं लिखी गई है, बल्कि जैनधर्म गुरुओं की हर साल मिलने वाली प्रतिमाएं इसे अक्षरशः सिद्ध करती है। यहाँ पार्श्वनाथ की मूर्ति यमुना की किनारे मार्च 2017 में मिली हैं। कहा जाता है कि 200 वर्ष पहले अंग्रेजी शासन काल में यहाँ बेगम सुमेरु राज्य करती थीं। गंगा से एक नहर निकालने के लिये खुदाई करते समय ध्यानमुद्रा में स्थित भगवान चंद्रप्रभु जी की एक प्रतिमा मिली जिसे पहले से स्थित इस मंदिर में स्थापित कर दिया गया है। इस मंदिर का पुनरुद्वार सन्न 1834 ई० में किया गया तथा वर्ष २०११ में यहाँ तीर्थंकर पद्धमप्रभ के चार कल्याणक के प्रतीक में चतुर्मुखी चार चरण चिन्हों का एक शीलफलक रख गया है। वर्तमान में कौशाम्बी में दो जैन मंदिरों का निर्माण प्रयागराज-कौशाम्बी मार्ग पर, थाने से थोड़ी दूर पहले, हो रहा था। सड़क के पश्चिमी किनारे पर स्थित मंदिर उत्तर भारत की नागर शैली में निर्मित है। 6ठे तीर्थंकर पद्धमप्रभ को समर्पित इस मंदिर में 24 तीर्थंकरों की प्रतिमाएं स्थापित हैं। खास बात तो यह है कि इस मंदिर के निर्माण में कीलों का प्रयोग नहीं किया गया है। कारीगरों की इस कला ने इस मंदिर को बेजोड़ नक्काशी की श्रेणी में शामिल कर दिया है।

प्रभाषगिरी: प्राचीन काल से ही यमुना का प्रशांत तट, पर्वत की हरीतिमा और गुहा की शांति साधुओं का ध्यान आराधना के लिये आकर्षित करती राहही है। प्रभाषगिरी में शुंग काल (ईपू 185से100तक) के समय के कई शिलालेख प्राप्त हुए हैं। उत्तर पांचाल नरेश अषाढ़ सेन के समय के समय के दो लेख यहाँ पाए गये गईं। यहाँ आसपास में जैन पुरातत्व सामग्री और मूर्तियों बहुतायत में मिलती है। उत्खनन में अनेक चतुर्भुजी प्रतिमा से युक्त मानस्तंभ के अवशेष, मंदिर कर ऊपर पहाड़ की एक विशाल शिला में उकेरी हुई चार प्रतिमाएं दिखाई पड़ती हैं, जो ध्यानमम्न मुनियों की है। यहाँ दो बड़े जैन मंदिर है। पहले मंदिर में मूल नायक तीर्थंकर भगवान पद्धमप्रभ की बादामी पाषाण की पद्मासन प्रतिमा स्थापित है। दूसरे मंदिर में भगवान तीर्थंकर पद्धमप्रभ के साथ भगवान चंद्रप्रभु और भगवान शांतिनाथ जी की प्रतिमाएं विराजमान है। इस मंदिर का निर्माण का समय सन्न 1824 में किया गया था, दोनों मंदिरों पर भगवान के चरण चिन्ह स्थापित है।

वर्तमान में कौशाम्बी: आज कौशाम्बी उत्तर प्रदेश राज्य का एक जिला है, जिसे इलहबद से अगल कर एक जिला 4 अप्रैल 1997 को बनाया गया था। जिला मुख्यालय, मंझनपुर यमुना नदी के उत्तर तट पर इलाहाबाद के दक्षिण-पश्चिम में इलाहाबाद से लगभग 55 किमी दूर स्थित है। यह दक्षिण में चित्रकूट, उत्तर में प्रतापगढ़, पश्चिम में फतेहपुर और पूर्व में इलाहाबाद  से घिरा हुआ है। हालांकि, इस जिले के कब्जे वाले इलाके में बहुत गौरवशाली अतीत है। जिसमें 476 ग्राम पंचायत, 7 नगर पंचायत, 13 पुलिस स्टेशन, 3 तहसील, 13 अस्पताल, 70 कॉलेज/महाविद्यालय, 1 नगर पालिका परिसद, 14 बैंक, 8 विकास खंड एवं 7 बिजली स्टेशन हैं. जिसकी आबादी 15,99,596 जिसमें पुरुष आबादी 8,38,485 एवं महिला आबादी 7,61,111, गावों की संख्या 869, जिसका क्षेत्रफल 1780sq.km हैं, भाषा हिन्दी और प्रमुख नदियां गंगा और यमुना, प्रमुख फसलें गेहूँ,धान,चना,अरहर,उरद एवं गन्ना. अमरूद की प्रसिद्ध इलाहाबाद किस्म वास्तव में कौशाम्बी की विशेषता हैं, सिचाई के प्रमुख स्रोत नहरों और ट्यूबवेल इत्यादि।

वर्तमान में कौशाम्बी जिला

  1. ग्राम पंचायत 476

  2. नगर पंचायत 07

  3. पुलिस स्टेशन 13-- मँझनपुर, सैनी, करारी, कोखराज, पिपरी, पश्चिम शरीरा, महेवा घाट, मोहब्बतपुर पाइन्स, सराय अकिल, चरवा, कौशाम्बी, पुरमुक्ति एवं महिला थाना मँझनपुर।

  4. अस्पताल 13-- क्षेत्रीय आयुर्वेद और यूनानी चिकित्सालय, जिला चिकित्सालय, प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र कनैली, प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र चायल, प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र नेवादा, प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र कड़ा इत्यादि

  5. कॉलेज/महाविद्यालय 70-- कौशाम्बी डिग्री कॉलेज, कौशाम्बी पी जी डिग्री कॉलेज, चंद्र शेखर सिंह स्कूल ऑफ़ नर्सिंग आयुर्वेद, डॉ रिज़वी कॉलेज ऑफ़ इंजीनियरिंग, भवंस मेहता डिग्री कॉलेज भरवारी कौशाम्बी, महात्मा ज्योतिबाफूले गवर्नमेंट पॉलिटेक्निक, मौलवी लियाकत अली डिग्री कॉलेज इत्यादि

  6. तहसील 03-- सिराथु, मँझनपुर,चायल

  7. नगर पालिका परिसद 01-- भरवारी

  8. बैंक 14-- इलाहबाद बैंक, ओरियन्टल बैंक ऑफ़ कॉमर्स, बैंक ऑफ़ इंडिया, बैंक ऑफ़ बड़ौदा इत्यादि

  9. विखस खंड 08-- कौशाम्बी, कड़ा, चायल, नेवादा, सिराथु, मँझनपुर, मुरतगंज, सरसवाँ।

  10. आबादी--15,99,596

  11. भाषा-- हिन्दी

  12. गावं-- 869

  13. पुरुष— 8,38,485

  14. महिला-- 7,61,111  

 संदर्भ-- 

  1. कौशाम्बी, गोपाल जी बरनवाल प्रकाशक गोपाल जी बरनवाल 359/192 बाघम्बरी गृह स्थल, अल्लापुर प्रयागराज
  2. भारत के प्रमुख बौद्ध तीर्थ-स्थल, डॉ. प्रियसेन सिंह प्रकाशक ईस्टर्न बुक लिंकर्स न्यू-चंद्रवल जवाहर नगर दिल्ली पेज नं 190
  3. भारत के प्रमुख बौद्ध तीर्थ-स्थल, डॉ. प्रियसेन सिंह प्रकाशक ईस्टर्न बुक लिंकर्स न्यू-चंद्रवल जवाहर नगर दिल्ली पेज नं 191
  4. भारत के प्रमुख बौद्ध तीर्थ-स्थल, डॉ. प्रियसेन सिंह प्रकाशक ईस्टर्न बुक लिंकर्स न्यू-चंद्रवल जवाहर नगर दिल्ली पेज नं 192
  5. कौशाम्बी (प्राचीन भारत का एक गौरवशाली नगर) कुमार निर्मलेन्दु प्रकाशक राजकमल प्रकाशन दरियागंज दिल्ली पेज नं 10
  6. कौशाम्बी (प्राचीन भारत का एक गौरवशाली नगर) कुमार निर्मलेन्दु प्रकाशक राजकमल प्रकाशन दरियागंज दिल्ली पेज नं 12
  7. कौशाम्बी (प्राचीन भारत का एक गौरवशाली नगर) कुमार निर्मलेन्दु प्रकाशक राजकमल प्रकाशन दरियागंज दिल्ली पेज नं 16
  8. कौशाम्बी (प्राचीन भारत का एक गौरवशाली नगर) कुमार निर्मलेन्दु प्रकाशक राजकमल प्रकाशन दरियागंज दिल्ली पेज नं 90
  9. कौशाम्बी (प्राचीन भारत का एक गौरवशाली नगर) कुमार निर्मलेन्दु प्रकाशक राजकमल प्रकाशन दरियागंज दिल्ली पेज नं 91
  10. कौशाम्बी (प्राचीन भारत का एक गौरवशाली नगर) कुमार निर्मलेन्दु प्रकाशक राजकमल प्रकाशन दरियागंज दिल्ली पेज नं 140
  11. कौशाम्बी (प्राचीन भारत का एक गौरवशाली नगर) कुमार निर्मलेन्दु प्रकाशक राजकमल प्रकाशन दरियागंज दिल्ली पेज नं 141
  12. प्रयाग-प्रदीप श्री शालिग्राम श्रीवास्तव प्रकाशक हिन्दुस्तान ऐकड़मी प्रयागराज पेज नं 180
  13. प्रयाग-प्रदीप श्री शालिग्राम श्रीवास्तव प्रकाशक हिन्दुस्तान ऐकड़मी प्रयागराज पेज नं 181
  14. भगवान बुद्ध डी. डी. कोसम्बी प्रकाशक राजकमल प्रकाशन
  15. Early history of Kaushambi N.N.Ghosh
  16. G.R. Sharma ASI Report
  17. वत्स के वत्स (कौशाम्बी) श्रीपति प्रसाद चौधरी प्रकाशक बुक्स क्लिनिक प्रकाशक पेज नं 06
  18. वत्स के वत्स (कौशाम्बी) श्रीपति प्रसाद चौधरी प्रकाशक बुक्स क्लिनिक प्रकाशक पेज नं 08
  19. वत्स के वत्स (कौशाम्बी) श्रीपति प्रसाद चौधरी प्रकाशक बुक्स क्लिनिक प्रकाशक पेज नं 09
  20. RTI Reply ALSOI/R/T/24/00092/32 Date 10/06/2024
  21. https://kaushambi.nic.in/hi/

 

Monday, October 21, 2024

हिन्दू कोड बिल और महिलाएं

 

डॉ भीमराव अम्बेडकर (हिन्दू कोड बिलऔर स्त्रियाँ --अगर हम महिलाओं और खास तौर पर दलित महिलाओं (अनुसूचित जाति ) पर अध्ययन कर रहे है तो डॉ अम्बेडकर और हिन्दू कोड बिल  के योगदान को जोड़ा जाना अनिवार्य है। भारत में सभी वर्णों स्त्रियों की मुक्ति की व्यक्तिगत और क़ानूनी लड़ाई डॉ भीमराव अम्बेडकर ने 'हिन्दू कोड बिल  'देकर लड़ी थी। इस बिल के तहत पुत्र के समान पुत्री को भी पिता की सम्पत्ति में अधिकार देने की बात कही गयी थी ,विवाह और तलाक के अधिकारों को माँग भी थी ,जिससे तत्कालीन संसद ने यह बिल पास नहीं होने दिया गया था। जिससे निराश होकर डॉ अम्बेडकर ने पंडित जवाहर लाल नेहरू के मंत्रिमंडल से कानून मंत्री के पद से 10 अक्टूबर 1951 को इस्तीफा दे दिया,हिन्दू कोड बिल न पास होने के कारण उन्हें  बहुत दुःख पहुँचा था इस बिल का विरोध करने वाले नहीं चाहते थे कि उनकी बेटियों को आर्थिक रूप से पिता की संपत्ति में से क़ानूनी हक़ मिले और उनकी स्थिति सुधरे ,वे आज़ाद भारत में भी स्त्रियों पर हिन्दू वर्ण-व्यवस्था के कानून को लादना चाहते थे। कुछ समय बाद 'हिन्दू कोड बिल 'कई टुकड़ो में पास हुआ था परन्तु व्यावहारिक रूप से देखा जाये तो आज भी स्त्रियों से उनका हक़ छिना।  बाबा साहेब ने 'हिन्दू कोड बिल 'के माध्यम से सिर्फ महिलाओं के अधिकारों और आज़ादी की बात कर रहे थे बल्कि उन सभी रूढ़िवादी व्यक्तियों पर कड़ी चोट कर रहे थे। हिन्दू  के अधिकार निम्नलिखित है ,जो इस प्रकार है। 

  1. हिन्दू विवाह अधिनियम 

  2. विशेष विवाह अधिनियम

  3. गोद लेना (दत्तक ग्रहण ) करना , अल्पायु सरक्षरता अधिनियम 

  4. निर्बल तथा साधनहीन परिवार के सदस्यों का भरण-पोषण अधिनियम 

  5. उत्तराधिकारी अधिनियम 

  6. हिन्दू विधवा को पुनर्विवाह अधिकार अधिनियम 

  7. संरक्षण संबंधी अधिनियम
  1. सम्पति को लेकर हिन्दू कोड बिल का ड्राफ्ट --

      1. विधवा ,बेटी ,विधवा बहु को भी बेटे के सामान विरासत में अधिकार बेटी को पिता की संपत्ति में बेटे समान आधा अधिकार इस विधेयक में बेटी को सम्पति का अधिकार दिया गया.

      2. महिला वारिसों की संख्या मिताक्षरा और दायभाग से कई गुना ज्यादा बढ़ गई थी.

      3. महिला उत्तराधिकारी को लेकर अलग-अलग भेदभाव था जैसे महिला विधवा तो नहीं ,महिला का आमीर ,गरीब आदि इस बिल ने महिलाओं के मध्य भेदभाव को ख़त्म किया.

      4. विरासत कानूनों में ये किया गया कि पिता से पहले माँ को वरीयता दी गई थी.

        हिन्दू कोड बिल में जेंडर समता :- हिन्दू कोड बिल के दो उद्देश्य थे। पहला, हिन्दू समाज से संबंधित बिखरे हुए विभिन्न कानूनों को एक की कानून संहिता मे एकचित्र करना व उनमें सुधार करना। दूसरा, हिन्दू कानूनों को भारतीय संविधान के अनुरूप बनाना। जहाँ तक पहले उदेश्य का संबंध है तो यह प्रचलित कानूनों और नियमों के सुधार से संबंधित था। दूसरे उदेश्य मे ड्रॉ अंबेडकर ने कहा ' मैं संविधान के अनुच्छेद 15 की ओर ध्यान देना चाहता हूँ जिसे मौलिक अधिकार के रूप मे पारित किया गया है। इस अनुच्छेद के अंतर्गत राज्य किसी नागरिक के विरुद्ध धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग, जन्म स्थान या इसमें से किसी भी आधार पर कोई भेदभाव नहीं करेगा। परंतु वर्तमान में जो हिन्दू नियम प्रचलित है, वह पुरुष एवं स्त्री के बीच भेद करते है। अतः प्रचलित हिन्दू नियमों मे सुधार न किया गया तो यह भारतीय संविधान के उपबंधों से टकराएगा।

        ड्रॉ अंबेडकर ने हिन्दू कोड बिल का जो प्रारूप तैयार कर संसद में पेश किया उसके प्रमुख बिंदुओं का विश्लेषण नीचे किया गया है --

        भरण-पोषण:- माता पिता के भरण पोषण की तत्कालीन हिन्दू रिवाजों मे कोई जिम्मेदारी सुनिश्चित नहीं की गई थी । केवल लोक---लाज के लिए वृद्धों की देखभाल का कानूनी आधार तैयार किया । एससके साथ हिन्दू स्त्री को जीविका प्राप्त करने के अपने अधिकार से वंचित हुए बगैर भी अपने पति से अलग रहने का अधिकार प्रदान किया । परंतु एसके साथ यह प्रतिबंध भी लगाया कि यदि पत्नी उसने धर्म परिवर्तन कर लिया है तो इस स्थिति में भरण--पोषण की हकदार नहीं होगी ।

        विवाह:- हिन्दू कोड बिल मे दो प्रकार के विवाहों को स्वीकार किया गया । एक शास्त्रीय विवाह, जो हिन्दू रीति--रिवाजों में पहले ही मावजूद था । दूसरा, सिविल विवाह । तत्कालीन हिन्दू कानून मात्र शास्त्रीय विवाह को ही स्वीकार करता था एवं सिविल विवाह के लिए उसमें कोई जगह न थी । सिविल विवाह जिसे रजिस्टर्ड विवाह भी कहा जाता है, जो शास्त्रीय विवाह से भिन्न था । दूसरी ओर अन्तर्जातीय विवाह को भी मान्यता प्रदान की (किसी भी जाति के लड़के एवं लड़की के विवाह संबंधों एवं उनसे उत्पन्न संतान को वैध माना गया । हिन्दू कोड बिल मे बहु--विवाह को निषेध किया गया । एसके अतिरिक्त विधवा पुनर्विवाह को जायज ठहराया गया ।

        गोद लेना :- पहले से प्रचलित हिन्दू कानून मे मात्र लड़के को ही गोद लिया जा सकता था ओर एसके लिए पत्नी की इच्छा कोई मैने नहीं रखती थी अर्थात पत्नी की स्वीकृति अनिवार्य मानी गई । हिन्दू परिवार मे जन्मे लड़के या लड़की को गोद लिया जा सकता था चाहे वे किसी भी हिन्दू जाति के क्यों न हो । ओर उसे जायदाद मे वारिस बना सकते है ।

        संरक्षण:- प्रचलित हिन्दू रीति--रिवाजों में पिता अपनी संतान का अभिभावक ताउम्र बना रहता था चाहे उसने धर्म परिवर्तन कर किया हो या सन्यास ले लिया हो । हिन्दू कोड बिल के अंतर्गत सन्यासी बनने एवं धर्म परिवर्तन दोनों ही स्थिति में पिता की अभिभावता का लोप होने का नियम बनाया गया ओर इसका अधिकार माता को भी दिया गया है ।

        संपत्ति का अधिकार :- परिवार की संपत्ति मे महिलाओं का अधिकार विशेषतः पुत्री के अधिकार का समावेश हिन्दू कोड बिल का क्रांतिकारी कदम था । इस विधेयक के अस्तित्व मे आने के बाद महिला द्वारा जो भी संपत्ति प्राप्त की जाएगी वह निश्चित रूप से उसकी निजी संपत्ति होगी । इसके अंतर्गत महिला द्वारा अर्जित धन, विवाह संस्कार से प्राप्त स्त्री धन, दहेज, सगे संबंधियों स्वर दिए गए उपहार की स्वामिनी महिला ही होगी । स्त्री धन को लेने या बेचने आदि का अधिकार पति, पुत्र, पिता और भाई मे से किसी को भी नहीं हैं । इसके साथ पति की मृत्यु होने पर महिला को पति की संपत्ति मे उसकी संतान के समान बराबर हिस्सा या अंश देने का प्रावधान किया गया । इतना ही नहीं पिता की मृत्यु यदि बिना वाशियतनामे के हुई है तो पुत्री को भी पुत्रों के बराबर जायदाद की वारिस या कहे तो उतराधिकारी होगी ।

        तलाक:- तत्कालीन हिन्दू रीति-रिवाजों मे विवाह संबंध को आत्मा का मिलन माना गया है अंतः इसे अविच्छेद बताया गया । परंतु आश्चर्य तो यह था कि यह अविच्छेदता केवल महिलाओं के लिए थी, पुरुषों के लिए नहीं अर्थात महिला किसी भी स्थिति मे पुरुष से अलग नहीं हो सकती थी । हिन्दू कोड बिल ने महिलाओं को विवाह तलाक का अधिकार प्रदान किया ओर तलाक के विभिन्न आधारों का निर्धारण किया । विवाह के दोनों पक्षों में से कोई एक नपुंसक हो, पति ने किसी महिला के साथ नाजायज संबंध हो, महिला के किसी गैर-मर्द के साथ नाजायज संबंध हो, पत्नी ने हिन्दू धर्म का परित्याग कर कोई दूसरा धर्म ग्रहण कर लिया हो, यदि पति पागल हो जिसका निरंतर पाँच वर्ष से उसका इलाज चल चुका हो। अतः इस आधारों में से किसी पर भी पुरुष ही नहीं महिला को भी तलाक का अधिकार दिया गया। जो हिन्दू कोड बिल का एक क्रांतिकारी कदम था। 

        अम्बेडकर की भूमिका:
        डॉ. अम्बेडकर ने हिंदू कोड बिल के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उन्होंने इस बिल को तैयार करने के लिए कई वर्षों तक काम किया और इसे संसद में पारित करवाया।

        अम्बेडकर के उद्देश्य:
        1. हिंदू समुदाय में सामाजिक और आर्थिक असमानता को दूर करना।
        2. महिलाओं के अधिकारों की रक्षा करना।
        3. व्यक्तिगत कानूनों में सुधार करना।
        4. हिंदू समुदाय को आधुनिक और प्रगतिशील बनाना।

        अम्बेडकर के अनुसार, हिंदू कोड बिल के मुख्य उद्देश्य थे:
        1. हिंदू समुदाय में सामाजिक और आर्थिक असमानता को दूर करना।
        2. महिलाओं के अधिकारों की रक्षा करना।
        3. व्यक्तिगत कानूनों में सुधार करना।
        4. हिंदू समुदाय को आधुनिक और प्रगतिशील बनाना।

        हिंदू कोड बिल के प्रमुख प्रावधान:
        1. हिंदू विवाह अधिनियम, 1955: इस अधिनियम ने हिंदू विवाह के लिए एक नई व्यवस्था की, जिसमें विवाह के लिए सहमति और पंजीकरण अनिवार्य है।
        2. हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956: इस अधिनियम ने हिंदू उत्तराधिकार के लिए नए नियम बनाए, जिसमें महिलाओं को समान अधिकार दिए गए।
        3. हिंदू संपत्ति अधिनियम, 1956: इस अधिनियम ने हिंदू संपत्ति के लिए नए नियम बनाए, जिसमें महिलाओं को समान अधिकार दिए गए।
        4. हिंदू वंशावली अधिनियम, 1956: इस अधिनियम ने हिंदू वंशावली के लिए नए नियम बनाए, जिसमें महिलाओं को समान अधिकार दिए गए।

        हिंदू कोड बिल का महत्व:
        1. यह भारत में पहला ऐसा कानून था, जिसने हिंदू समुदाय में सामाजिक और आर्थिक परिवर्तन की दिशा में कदम उठाया।
        2. यह कानून महिलाओं के अधिकारों की रक्षा करने में महत्वपूर्ण था।
        3. यह कानून हिंदू समुदाय को आधुनिक और प्रगतिशील बनाने में महत्वपूर्ण था।

        वर्तमान में हिंदू कोड बिल का मूल्यांकन:
        हिंदू कोड बिल का मूल्यांकन वर्तमान में भी महत्वपूर्ण है, क्योंकि यह भारत में परिवार कानून में एक महत्वपूर्ण परिवर्तन था। यहाँ कुछ बिंदु हैं जो इसके मूल्यांकन को दर्शाते हैं:
        महिला अधिकारों में सुधार
        हिंदू कोड बिल ने महिलाओं के अधिकारों में सुधार किया, जैसे कि सम्पत्ति में अधिकार, विवाह में सहमति और उत्तराधिकार में समान अधिकार।
        सामाजिक परिवर्तन
        इसने हिंदू समुदाय में सामाजिक परिवर्तन की दिशा में कदम उठाया, जैसे कि जाति प्रथा के उन्मूलन और विधवा पुनर्विवाह की अनुमति।
        आधुनिकीकरण
        हिंदू कोड बिल ने हिंदू समुदाय को आधुनिक और प्रगतिशील बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
        व्यक्तिगत कानून में सुधार
        इसने व्यक्तिगत कानून में सुधार कुछ आंकड़े और तथ्य जो इसकी स्थिति को दर्शाते हैं:
        1. महिला सशक्तिकरण: हिंदू कोड बिल के कारण महिलाओं को सम्पत्ति में अधिकार मिले हैं, लेकिन अभी भी कई जगहों पर महिलाओं को समानता नहीं मिलती।
        2. विवाह और तलाक: हिंदू कोड बिल के कारण विवाह और तलाक के नियमों में बदलाव आया है, लेकिन अभी भी कई जगहों पर पारंपरिक विवाह प्रथाएँ चलती हैं।
        3. उत्तराधिकार: हिंदू कोड बिल के कारण महिलाओं को उत्तराधिकार में अधिकार मिले हैं, लेकिन अभी भी कई जगहों पर पुरुषों को अधिक अधिकार मिलते हैं।
        4. जाति प्रथा: हिंदू कोड बिल के कारण जाति प्रथा के उन्मूलन में मदद मिली है, लेकिन अभी भी कई जगहों पर जाति प्रथा चलती है।

        एक सर्वेक्षण के अनुसार:

        1. 70% हिंदू महिलाएँ अपने पति के साथ रहती हैं।
        2. 40% हिंदू महिलाएँ अपने पति के परिवार के साथ रहती हैं।
        3. 25% हिंदू महिलाएँ अपनी संपत्ति के अधिकार का उपयोग करती हैं।
        4. 15% हिंदू महिलाएँ अपने तलाक के अधिकार का उपयोग करती हैं।
        5. किया, जैसे कि विवाह, उत्तराधिकार और संपत्ति के मामलों में।


        कुछ सर्वेक्षण के श्रोत हैं जो हिंदू कोड बिल के पालन और प्रभाव के बारे में जानकारी प्रदान करते हैं:

        1. नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे (NFHS)
        2. नेशनल सैम्पल सर्वे ऑर्गनाइजेशन (NSSO)
        3. इंडियन नेशनल ब्यूरो ऑफ स्टैटिस्टिक्स (INBS)
        4. यूनाइटेड नेशंस डेवलपमेंट प्रोग्राम (UNDP)
        5. वर्ल्ड बैंक
        6. ह्यूमन राइट्स वॉच (HRW)
        7. अम्नेस्टी इंटरनेशनल
        8. नेशनल कमिशन फॉर वुमन (NCW)
        9. नेशनल ह्यूमन राइट्स कमिशन (NHRC)
        10. सेंटर फॉर सोशल रिसर्च (CSR)

        निष्कर्ष:-
        हिंदू कोड बिल ने भारत में परिवार कानून में एक महत्वपूर्ण परिवर्तन किया, लेकिन इसकी सीमाएँ और चुनौतियाँ भी हैं। इसका मूल्यांकन वर्तमान में भी महत्वपूर्ण है, ताकि हम इसकी कमियों को दूर कर सकें और महिला अधिकारों को मजबूत बना सकें। इसने हिंदू समुदाय में सामाजिक और आर्थिक परिवर्तन की दिशा में एक      महत्वपूर्ण कदम उठाया.

        संदर्भ--

        1. https://www.mea.gov.in/Images/CPV/VolumeH32.pdf
        2. हिन्दू कोड बिल और डा. अम्बेडकर सोहनलाल शास्त्री सम्यक प्रकाशन दरियागंज दिल्ली 2018 

        3. https://ijaar.co.in/wp-content/uploads/2022/03/23.pdf

        4. https://www.google.com/url?sa=t&source=web&rct=j&opi=89978449&url=https://hindi.feminisminindia.com/2022/06/27/ambedkar-hindu-code-bill-explainer-in-hindi/&ved=2ahUKEwjPwaLVu6SJAxVaTGwGHUblDGYQFnoECDYQAQ&usg=AOvVaw2omYDwC6FksYhbaNOVKTvL

         

        Ravendra Pratap Singh Ex Student Of  B.M.M College Bharwari Kaushambi M.A in Sociology University Of Allahabad Contact ravendras3287@gmail.com Instagram oxy.ravendra Twitter @itsravendra3287 .