Saturday, November 18, 2023

उत्तर प्रदेश की अनुसूचित जाति की महिलाओं पर एक समाजशास्त्रीय अध्ययन


अनुसूचित जाति की महिलाओ की सामाजिक , आर्थिक एवं राजनैतिक स्थिति का एक समाजशास्त्रीय अध्ययन (उत्तर प्रदेश ) के सन्दर्भ में ---

सारांश --प्रस्तुत शोधपत्र में उत्तर प्रदेश की "अनुसूचित जाति "की महिलाओं की सामाजिक ,आर्थिक एवं राजनैतिक स्थिति का एक समाजशास्त्रीय अध्ययन किया गया है। यह विडम्बना ही है कि अस्पृश्यता जैसी कुप्रथा हमारे समाज में प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से विद्यमान है जो जाति व्यवस्था का सबसे अधिक क्रूर तत्व है। वर्त्तमान समय में भी अनुसूचित जाति सम्बन्धी धारणाएं ज्यों की त्यों बानी हुई है ,विभ्भिन्न संवैधानिक व्यवस्थाओं के होते हुए भी इनकी सामाजिक स्थिति में सुधर आशाओं के अनुरूप कोई नियंत्रण नहीं है।दलित महिलाएं सदियों से मौन आधारित संस्कृति में जी रही  है ,जो उनके शोषण और बर्बरता के प्रति मूकदर्शक बने रहने का मुख्या कारण है। उनका अपने शरीर ,कमाई और जीवन पर कोई नियंत्रण नहीं है ,उनके खिलाफ होने वाली हिंसा केवल शोषण के स्तर तक नहीं रूकती बल्कि उससे आगे भी यह उत्पीड़न ,भूख ,कुपोषण ,शारीरिक और मानसिक यातना ,बलात्कार ,अशिक्षा ,बेरोजगारी ,असुरक्षा आदि का कारण भी बनता है। जातिवाद और पितृसत्ता की सामूहिक ताकतों ने अपना वर्चस्वा बना लिया है जहां दलित महिलाएं नर्क भोगती है। अधिकतर महिलाएं आधुनिकता के युग में भी एक हैवानियत के युग में जी रही है। जिनका मुख्या रूप से अशिक्षा और अपने संवैधानिक अधिकारों को न जानना मुख्या कारण है। 

परिचय --भारत में दलित महिलाएं गरीबी में जीवन जीने के साथ-साथ विभिन्न परिस्थितियों में अपना अस्तित्व रखती है उनका कार्य उनका कार्य स्थानों पर शोषण और घर में श्रम का दुरूपयोग किया जाता है। "गेल ओमवेट"एक नारीवादी समाजशास्त्रीय है इन्होने भारतीय दलित माहिलाओ को 'दलितों के बिच का दलित 'कहा है। केवल ब्राम्हण और क्षत्रिय सबसे ऊपर है उनके बाद उस जाति की महिलाएं है जो महिला होने होने के कारण निचे है फिर सबसे निचे दलित है और  दलितों  सबसे निचे दलित महिलाएं है। भारत या देश के किसी भी राज्य की दलित महिलाओ के मुद्द्दे अन्य भारतीय महिलाओ से भिन्न है। वे सभी प्रकार के मानव अधिकारों शिक्षा,आय ,गरिमा ,आदि से वंचित है। सामाजिक ,आर्थिक और राजनैतिक स्थिति और अधिकारों आदि के कारण उन्हें तत्कालीन समाज या दुनिया से भिन्न (वंचित ) होना पड़ता है , जिसके कारण उनकी अधीनता अधिक तीव्र है -  दलित होने के कारण उन्हें उच्च जाति के पुरुषों और महिलाओ द्वारा सामान रूप से अपमानित किया जाता है साथ ही उनके स्वयं घरवाले एवं दलित समाज के मर्दो द्वारा भी निचा दिखाया जाता है,परन्तु इसके बावजूद  उन्होने अपने दृस्टि ,परिश्रम और श्रम द्वारा देश के विकास और राज्यों और समाज में बहुत योगदान है,परन्तु उनके योगदान को कभी मान्यता नहीं मिली हमेशा उन्हें हीं हीन भावना से देखा जाता है। भारतीय समाज में जाति व्यवस्था की प्राचीन काल से ही शाखा में मौजूद है जो एक सामाजिक बुराई ही नहीं परन्तु समाज की प्रगति में बाधा भी हैं मानव सभ्यता का इतिहास गवाह है कि महिला अस्मिता ,स्वतंत्रा व समानता का अधिकार सदा से ही उलझनपूर्ण रहा है। इस पुरुष प्रधान समाज और सामाजिक असमानता,अशिक्षा ,अन्धविश्वास ,दहेजप्रथा ,जातिगत छुवाछुत  और लिंग आधारित भेद ने स्थिति को और भी गंभीर कर दिया दलित महिलाएं वंचितों से भी वंचित मानी गई है। सामाजिक परम्पराएं इन्हें और असहाय व पराजित बनाती है भारतीय समाज में महिलाएं शोषित  तो है किन्तु इनमें महिलाओं का एक ऐसा वर्ग भी सम्मिलित है जिनमें महिलाओं की स्थिति और भी दयनीय एवं सोचनीय है जो सदियों से जाति से जुड़ी वैचारिक मान्यताओं के कारणवश उपेच्छित व शोषित है जिसे अनुसूचित जाति कहा जाता है। 2011 की जनसंख्या के अनुसार भारत में अनुसूचित जाति की कुल आबादी 25 प्रतिशत है इतनी बड़ी आबादी होने के बावजूद भी यह समुदाय एवं खासतौर पर इस समुदाय की महिलाएं सामाजिक ,आर्थिक ,स्वास्थ और राजनीतिक स्थिति से काफ़ी पिछड़ा हुआ है। सरकारी और गैर-सरकारी स्तर पर तमाम प्रयासों के बावजूद अनुसूचित जाति की महिलाओ पर अत्याचार की घटनाएं लगातार सामने आती रहती है उनके अधिकारों ,कानूनों के बावजूद इस समुदाय की महिलाओं की सामाजिक ,आर्थिक और राजनैतिक स्तर से बेहद कमजोर व वंचित है जो एक चिंताजनक विषय है। इसलिए समाजशास्त्र का विद्ययार्थी होने के नाते मै उन वंचित महिलाओं के सामाजिक ,राजनैतिक और आर्थिक स्थिति की समाजशास्त्रीय दृस्टि से अध्ययन करना जरुरी है जो है जो उन करोडो वंचित ,शोषित और सामाजिक ,आर्थिक ,राजनैतिक रूप से पिछड़े अनुसूचित जाति की महिलाओ का अध्ययन करना जरुरी है। 

शोध विषय का उद्देश्य --

  1. उत्तर प्रदेश की अनुसूचित जाति की महिलाओं की सामाजिक स्थिति का अध्ययन और समाधान। 

  2. उत्तर प्रदेश अनुसूचित जाति की महिलाओं की आर्थिक स्थिति का अध्ययन और समाधान। 

  3. उत्तर प्रदेश की अनुसूचित जाति की महिलाओं राजनितिक स्थिति का अध्ययन और समाधान। 

  4. उत्तर प्रदेश की अनुसूचित जाति की महिलाओं महिलाओं के संवैधानिक अधिकारों का अध्ययन करना। 

  5. उत्तर प्रदेश की अनुसूचित जाति महिलाओं के सामाजिक,आर्थिक और राजनितिक अधिकारों को इस शोध पत्र क्र माध्ययम से प्रस्तुत करना। 

शोध विषय की उपकल्पना --

  1. अनुसूचित जाति की महिलाओं के प्रति सामाजिक दृष्टिकोण व व्यवहार में भेदभाव है। 

  2. अनुसूचित जाति की महिलाओं के प्रति सामाजिक राजनितिक और आर्थिक व्यवहार में भेदभाव हैं। 

अध्ययन विषय का समाजशास्त्रीय महत्त्व -- महिलाओं की स्थिति के मूल्यांकन हेतु उनकी सामाजिक रुपरेखा का अध्य्यन करना अवश्य है सामाजिक संरचनाएं सांस्कृतिक प्रतिमान एवं मूल्य प्रणालियों का प्रभाव पुरुषो और महिलाओं के व्यवहार सम्बन्धी प्रत्याशाओं पर पड़ता है। भारत गावों का देश है ,पुरे विश्वभर में अपनी महान संस्कृति और पारम्परिक मूल्यों के लिए एक प्रसिद्ध देश है। उत्तर प्रदेश के 75 जिलों का और गावों का इतिहास देखे तो अनुसूचित जाति की महिलाओं की स्थिति दयनीय तथा चिंताजनक है ,यहाँ की दलित महिलाएं अनेक कष्टों के साथ बुरी मान्यताओं का बोझा ढो रही है ,मूलभूत सुविधाओं से वंचित है। इस समुदाय की महिलाएं जो अधिकांश रूप से आनौपचारिक ,असंगठित क्षेत्र में है शिक्षा ,स्वस्थ्य और उत्पादन संसाधनों तक पहुंचना अपर्याप्त है ये ज्यादातर सीमान्त गरीब और सामाजिक रूप से वंचित रह जाती है। अनुसूचित जाति की महिलाओं पर अत्याचार की घटनाएं लगातार सामने आती रहती है। स्वतंत्राप्राप्ति के पाश्चात सरकार ने इस समुदाय की महिलाओं के लिए अनेक अधिकारों ,कानूनों के बावजूद भी ये सामाजिक ,आर्थिक एवं राजनितिक स्थिति से बेहद कमजोर है जो एक चिंताजनक है ,कारण यह है कि इस समुदाय कि महिलाओं में शिक्षा का आभाव है परन्तु जिसे अपने हक़ और अधिकारों का ज्ञान भी न हो वह उस स्तर से सामने उठ कर सामने नहीं आ सकते है अतः इस दृस्टि से आवश्यक हो जाता है कि इस विषय पर समाजशास्त्रीय अध्ययन जरुरी और महत्वपूर्ण हो जाता है। चुँकि अनुसूचित जाति की महिलाएं सामाजिक रूप से पिछड़ेपन के कारण ही  मुख्या धारा से पीछे रह गई है। 

तथ्य संकलन की प्रविधियाँ एवं उपकरण --

प्रस्तुत शोध कार्य में उत्तर  प्रदेश राज्य के विभिन्न जिलों का चुनाव किया गया है ,अध्ययन पर अनुसूचित जाति की महिलाओं की संख्या के आधार पर चयन किया गया है ,प्रस्तुत शोध में महत्वपूर्ण उपकरण के रूप में साक्षरता और सामाजिक अपराध एवं राजनैतिक भागीदारी का अवलोकन प्राविधि के द्वारा तथ्यों का संकलन व शोधकार्य पूर्ण किया गया है। 

शोध प्राविधि --

प्रस्तुत शोध पत्र में तथ्यों के संकलन एवं विश्लेषण पर आधारित है इससे सम्बंधित तथ्यों के संकलन हेतु द्वितीयक स्रोतों के रूप में विभिन्न पुस्तकों ,पत्रों ,पत्रिकाओं का प्रयोग किया गया है साथ विभिन्न गावों एवं जिलों में जा कर विश्लेषणत्मक पद्यति का प्रयोग किया गया है। प्रस्तुत शोध पत्र में मेरी तरफ से कुछ बढ़ाचढ़ा कर कुछ नहीं लिखा गया है सामाजिक तथ्यों के आधार पर शोध पत्र तैयार किया गया है। 

कूटशब्द --

महिला ,दलित,अनुसूचित जाति महिला ,उत्पीड़न ,हिंसा और सशक्तिकरण इत्यादि 

उद्देश्य -- 

भारत के राज्य उत्तर प्रदेश में दलित महिलाओं की सामाजिक ,आर्थिक ,राजनितिक और शैश्चाणिक स्थिति का पता लगाना की दलित महिलाओं की भारतीय समाज में स्थान है। 

दलित साहित्य :दलित महिलाओं का प्रतिनिधित्व --

दलित साहित्य क्या है? इस सम्बन्ध में थोड़ी सी जानकारी देना चाहूंगा 'दलित 'शब्द का अर्थ विभिन्न शब्दकोशों आधार पर 'दबाया गया ,शोषित ,वंचित एवं अपमानित आदि है। अंग्रजी में इसे "डिप्रेस्ड क्लास"कहते है। जब दलित के साथ साहित्य जुड़ जाता है तो वह अपमानितो ,पीड़ितों ,शोषितों व वंचितों  साहित्य हो जाता है। 500 -200 बी.सी. की  रचना के दौरान जग मनु ने मनुस्मृति की रचना की तो महिलाओं  स्थिति और बिगड़ गई ,मनु स्पस्ट रूप से कहता है कि "एक महिला को कभी स्वतंत्र नहीं होना चाहिए बचपन में उस पर उसके पिता का अधिकार है ,युवावस्था में उसके पति और बढ़ापे में उसके बेटे का "शास्त्रीय युग की अवधि में कई नए प्रतिबन्ध विवाह पर लगाए गए जैसे बाल विवाह आदर्श बन गया ,विधवाओं को पुनर्विवाह से वंचित कर दिया गया ,महिलाओं को संपत्ति के अधिकारों से वंचित कर दिया गया और दहेज़ प्रथा अस्तित्व में आई। दलित महिलाओं को अपवित्र माना जाता था हम यह  देखते है कि एक जाति के भीतर महिला की स्तिथि उसकी जाति के आर्थिक वर्चस्व के साथ कैसे घट गया , जहां अनुसूचित जाति की स्त्रियाँ ,विधवाएं ,वेश्याएँ ,देवदासियां ,बंधुवा मजदूर ,कूड़े के ढेर पर प्लास्टिक बिनने वाले और अनाथ भी सम्मिलित है। दलित साहित्य का उद्देश्य भेदभाव - भरी सामाजिक व्यवस्था को बदलने का एक तीव्र स्वर है दलित साहित्य जाति ,वर्ण ,रंग ,नस्ल और लिंग भेद से उठकर सभी को स्वतंत्रता ,समानता और बन्धुत्वा का पक्षधर है। दलित साहित्य का आरम्भ 'हीरा डोम 'की 'अछूत की शिकायत 'एक भोजपुरी कविता से माना जाता है। जिसे महावीर प्रसाद द्विवेदी ने सन्न 1914 की 'सरस्वती पत्रिका 'में सम्पादित किया था ,जिसके कुछ अंश इस प्रकार है। 

"हमनी के रातिदिन दुखवा भोगतबानी ,हमनी के सहिबे से मिनती सुनाइबि। 

  हमनी के दुःख भगवनवों न देखताजे ,हमनी के कबले कलेसवा उठाइबि

  खंभवा के फारि पहलाद के बचवले जा ,ग्राह के मुँहे से गगराज के बचवले।

  धोती जुरजोधना के भइया छोरत रहै ,परगट होके तहाँ कपड़ा बढ़वले। 

  मरले रवनवा के पलते भभिखना के ,कानी अंगुरी पै धौके पथरा उठवले। 

  कहवाँ सुतल बांटे ,सुनत न बांटे अब। 

  डोम जानि हमनि के, छुए से डेरइले''। 

यह है नयी चेतना की कविता ,जो अछूत माने जाने वाले मनुस्य और उसकी स्वतंत्रता के लिए भगवान को भी कठघरे में खड़ा करती है। पहली बार दलित आक्रोश फूट पड़ता है,वह भगवान को 'भगवनवा 'कहता है।

डॉ भीमराव अम्बेडकर (हिन्दू कोड बिल  )  और दलित स्त्रियाँ --

अगर हम महिलाओं और खास तौर पर दलित महिलाओं (अनुसूचित जाति ) पर अध्ययन कर रहे है तो डॉ अम्बेडकर और हिन्दू कोड बिल  के योगदान को जोड़ा जाना अनिवार्य है। भारत में सभी वर्णों स्त्रियों की मुक्ति की व्यक्तिगत और क़ानूनी लड़ाई डॉ भीमराव अम्बेडकर ने 'हिन्दू कोड बिल  'देकर लड़ी थी। इस बिल के तहत पुत्र के समान पुत्री को भी पिता की सम्पत्ति में अधिकार देने की बात कही गयी थी ,विवाह और तलाक के अधिकारों को माँग भी थी ,जिससे तत्कालीन संसद ने यह बिल पास नहीं होने दिया गया था। जिससे निराश होकर डॉ अम्बेडकर ने पंडित जवाहर लाल नेहरू के मंत्रिमंडल से कानून मंत्री के पद से 10 अक्टूबर 1951 को इस्तीफा दे दिया,हिन्दू कोड बिल न पास होने के कारण उन्हें  बहुत दुःख पहुँचा था इस बिल का विरोध करने वाले नहीं चाहते थे कि उनकी बेटियों को आर्थिक रूप से पिता की संपत्ति में से क़ानूनी हक़ मिले और उनकी स्थिति सुधरे ,वे आज़ाद भारत में भी स्त्रियों पर हिन्दू वर्ण-व्यवस्था के कानून को लादना चाहते थे। कुछ समय बाद 'हिन्दू कोड बिल 'कई टुकड़ो में पास हुआ था परन्तु व्यावहारिक रूप से देखा जाये तो आज भी स्त्रियों से उनका हक़ छिना।  बाबा साहेब ने 'हिन्दू कोड बिल 'के माध्यम से सिर्फ महिलाओं के अधिकारों और आज़ादी की बात कर रहे थे बल्कि उन सभी रूढ़िवादी व्यक्तियों पर कड़ी चोट कर रहे थे। हिन्दू  के अधिकार निम्नलिखित है ,जो इस प्रकार है। 

  1. हिन्दू विवाह अधिनियम 

  2. विशेष विवाह अधिनियम

  3. गोद लेना (दत्तक ग्रहण ) करना , अल्पायु सरक्षरता अधिनियम 

  4. हिन्दू उत्तराधिकारी अधिनियम 

  5. निर्बल तथा साधनहीन परिवार के सदस्यों का भरण-पोषण अधिनियम 

  6. उत्तराधिकारी अधिनियम 

  7. हिन्दू विधवा को पुनर्विवाह अधिकार अधिनियम 

सम्पति को लेकर हिन्दू कोड बिल का ड्राफ्ट --

  1. विधवा ,बेटी ,विधवा बहु को भी बेटे के सामान विरासत में अधिकार बेटी को पिता की संपत्ति में बेटे समान आधा अधिकार इस विधेयक में बेटी को सम्पति का अधिकार दिया गया.

  2. महिला वारिसों की संख्या मिताक्षरा और दायभाग से कई गुना ज्यादा बढ़ गई थी.

  3. महिला उत्तराधिकारी को लेकर अलग-अलग भेदभाव था जैसे महिला विधवा तो नहीं ,महिला का आमीर ,गरीब आदि इस बिल ने महिलाओं के मध्य भेदभाव को ख़त्म किया.

  4. विरासत कानूनों में ये किया गया कि पिता से पहले माँ को वरीयता दी गई थी.

एक मिथ हमारे समाज में अक्सर बोला जाता है कि डॉ भीमराव अम्बेडकर सिर्फ दलितों और दलित महिलाओं के नेता थे परन्तु यह सच नहीं है डॉ अम्बेडकर भारत की सभी महिलाओं के हक़ की बात करते थे। डॉ अम्बेडकर का एक 'कोट 'करना चाहूंगा। 

                        "मै किसी समुदाय की प्रगति 

                           उस समुदाय में हुई महिलाओं 

                           की प्रगति से मापता हूँ "

पितृसत्ता और दलित महिला एक सामाजिक प्रश्न -- समाज में एक प्रश्न पितृसत्ता से जुड़ा हुआ है ? जो अक्सर समाज इस प्रश्न पर उठाने पर मुँह फेर लिया जाता है। दलित समाज में ही नहीं देश के सभी समुदायों में पितृसत्ता के लक्षण पाये जाते है उदहारण के लिए देश और राज्यों गावों में अनेको उदहारण देखने को मिलते है पितृसत्ता समाज के कुछ उदाहरण प्रस्तुत करता हु। कौसल्या बैसन्त्री की 'आत्मकथा -दोहरा अभिशाप 'और सुशीला टाकभौरे की आत्मकथा 'शिकंजे का दर्द 'में अनेक स्थान में दर्ज हुआ है कि लिखिका सुशीला टाकभौरे लिखती है 'पति द्वारा बार-बार पीटी जाती हैं। उनके पति बहुत दिनों तक उनकी तनख्वाह अपने हाथ में रखते थे हर वक्त उन पर किसी पराये व्यक्ति जैसा व्यव्हार करते थे,अपराधी की तरह नियंत्रण में रखते है माकन खरीदना है तो अपने नाम से लेना इत्यादि तमाम ऐसे प्रसंग यह साबित कर ही देते हैं कि उनके पति की मानसिकता पितृसत्तामक से मुक्त नहीं हैं। ऐसी प्रकार के अनेक प्रसंग 'दोहरा अभिशाप 'में भी आये है। यहाँ पर एक पुस्तक को और शामिल करना चाहूंगा जो देश की प्रथम महिला आईपीएस किरण बेदी जी है 'जीत लो हर शिखर 'इसमें उन्होंने अपने पुलिस सर्विस की अनेकों घटनाओं को लिखा है। यह पितृसत्तामक समाज उन्हें यह अधिकार देता है कि पत्नी,बेटी ,बहुओ को नियंत्रण में रखने और उनपे अत्याचार 'जुल्म 'करने का बढ़ावा देता है। यह अनुसूचित जाति की महिलाओं का नहीं बल्कि सभी महिलाओं का दमन करता है परन्तु सबसे ज्यादा इस पितृसत्तात्मक समाज के दमन और शोषण का एक समुदाय ज्यादा प्रभावित किया जाता है जो अनुसूचित जाति की महिलाओं का समुदाय है। वर्ण-जातिप्रधान समाज भी उसके प्रति सवेदनशील नहीं है। घर से ज्यादा सवर्ण उसे दोहरे तरह से नियंत्रण में रखना चाहता है उस पर दलित महिला होने का ठप्पा लगा दिया जाता है क्योंकि वह गुलामी कमजोम जाति की स्त्री है उस पर नियंत्रण पाना जैसे पुरे दलित समाज पर नियंत्रण रखने के सामान है। आर्थिक शक्तियों और सामाजिक स्थितियों को अपने नियंत्रण में रखने के लिए धर्म और पुनर्जन्म का भय दिखाकर दलित समाज और दलित महिलाओं का दमन जारी रखा जाता है यह सिलसिला थमता नहीं है बल्कि और विकराल हो जाता है दलित साहित्य की सभी विधाओं में स्त्रियों से जुडी ये समस्याएं चित्रित हुई है इसलिए कहा जा सकता है कि दलित स्त्री समक्ष मात्र पितृसत्तात्मक सामाजिक व्यवस्था की ही समस्या नहीं है बल्कि उसकी मूल समस्या वर्ण जाति व्यवस्था भी है। उनके स्त्रियों,शैक्षिक,सामाजिक,आर्थिक और राजनितिक ज्ञान-विज्ञान मिडिया से पिछड़ी है तो मात्रा जाति -व्यवथा इसकी जिम्मेदार है। अमर उजाला दैनिक में 30 जनवरी 2014 को यूनेस्को की एक रिपोर्ट प्रकाशिक हुई थी ,उसमे कहा गया है ,"भारत में सबसे अमीर युवतियों ने पहले ही वैश्विक स्तर की साक्षरता हासिल कर ली है,लेकिन सबसे गरीब युवतियों ऐसा कर पाना 2080 तक ही संभव हो सकता है। '' यूनेस्को की यह रिपोर्ट बतलाती है कि भारत में गरीब की शैक्षिक स्थिति अत्यन्त चिंताजनक है। हमारे देश में पितसत्तामक जो प्रथा कार्य कर रही वह न केवल महिलाओं को उनके अधिकारों से ही नहीं बल्कि देश और राज्यों को पीछे ले जाने का कार्य रही हैं जिसका स्वारूप आने वाले समय में समाज में ऐसी परिस्थिति में लेकर खड़ा कर देगा जिसका जवाब भारतीय पितृसत्तामक समाज के पास उत्तर नहीं होगा ये समाज उन सवालो का उत्तर देने में असमर्थ होगा जो आने वाले कुछ समय में शिक्षित युवतियों द्वारा पूछा जायेगा। कुछ नारीवादी,संसद,वकीलों द्वारा दिए गए विचार। 

उर्वशी बुटालिया (नारीवादी लेखिका )--

 अभी भी हमारे देश में ,

महिलाएं दूसरी श्रेणी की नागरिक बानी हुई हैं। 

लेकिन अब वह दरवाजे के बाहर खड़ी होने 

के बजाय दरवाजे के अंदर आने और अपनी,बात सुनने की मांग है। 

फूलन देवी (संसद की पूर्व सदस्य )--

जब मेरी शादी नहीं हुई थी तो मैं सोचती थी कि मेरे हाथों पर,चूड़ियों की खनक आनदमयी होगी। 

मैं पैरों में पायल और गले में चांदी का हार पहनने के लिए ,तैयार रहती थी,पर अब नहीं। 

जबसे मैंने यह सीखा कि ये सारी चीजें उस आदमी का प्रतिनिधित्व ,करती है जो इन्हे देता है। 

एक हार उस रस्सी से काम नहीं था जो एक बकरी को पेड़ से बांधती है और उसे आज़ादी से वंचित करती है। 

करुणा नंदी (भारतीय सुप्रीम कोर्ट में वकील )--

लोगों को जरुरत है कि वे महिलाओ को पूर्ण नागरिक , पूर्ण व्यक्ति की तरह देखे 

जिसका अधिकार है संगीत पसंद करना ,जिसका अधिकार है काम पर जाना ,जिसका अधिकार है 

अपनी यौनियता अपने हिसाब से व्यक्त करना। 

इंदिरा जय सिंह (भारतीय सुप्रीम कोर्ट की वकील )-- अगर मेरे साथ कोई पुरुष वकील होता है हो न्यायधीश पहले उसे बोलने को कहते हैं।अगर मेरी दूसरी तरफ पुरुष वकील होता है तो पहले उसे बोलने को कहा जाता है ,मै अपनी बात रखने के शुरुवाती कीमती मिनट खो देती हूँ। यह विचारधारा ऊपर से नीचे तक बहती है ,न्यायधीश भी हमारे समाज से आते है और वे न्यायालय में कैसा व्यवहार करते हैं ये उनकी परवरिश से पता चलता है। यह उनकी महिलाओं को बराबर स्वीकार ना कर पाने की क्षमता को दिखता है। 

फूलन देवी (पूर्व संसद )--

महिलाओं के लिए लड़ाई लड़ना बहुत जरुरी है ,चाहे वो किसी भी जाति या घर्म की हो,असलियत में महिला दलित है। 

मीना कंदासामी (वकील , शोधकर्ता और मानव अधिकार कार्यकर्त्ता )--

हिंसा कोई ऐसी चीज़ नहीं जो अपना प्रचार करे ,  यह मेरे चेहरे पर नहीं लिखा है ,ज़ाहिर है कि अपने मुक्कों को मेरे शरीर पर मारते हुए वह इस बात को लेकर बहुत सावधान था। जब तक एक औरत बोल नहीं सकती ,जब तक हिंसा का कोई अंत नहीं है। 

दलित महिला आंदोलन -- आज़ादी के पहले 1848 में अछूत कन्याओ के लिए स्कूल सबसे पहले महात्मा ज्योतिबाराव फुले और उनकी पत्नी सावित्री बाई फुले ने दलित कन्याओ के लिए स्कूल पुणे (महाराष्ट्रा) में खोला परन्तु उस समय के सवर्ण लोग नहीं चाहते थे कि दलित बालिकाओं को पढ़ाया जाये इस लिए पुरे सवर्ण समाज ने इसका विरोध किया परन्तु वे इसमें सफल नहीं हो सके। उसके बाद डॉ भीमराव अम्बेडकर के विचरों और कार्य ने दलित महिलाओं के जीवन में महत्वपूर्ण अंतर ला दिया उनके आन्दोलन और विशेष रूप से उनके संगठनों ने कई दलित महिलाओं को सार्वजानिक जीवन में सक्रिय होने और नेतृत्व हासिल करने के लिए प्रोत्साहित किया। आज़ादी के बाद 1920 और 70 के दशक में दलित महिला आन्दोलन जाति और लिंग के खिलाफ अपने अधिकारों की मांग के लिए उभरे,हालांकि इन आन्दोलनों से दलित महिलाओ की विशिष्ट समस्याओं को स्वीकार नहीं किया गया। इसलिए 1990 में दलित महिलाओं की पहचान के कई विशेष स्वतंत्र और स्वायत दावे थे : राज्य स्तर पर दलित महिला NFDW (NATIONAL FEDERATION OF DEMOCRATIC WOMEN )राष्ट्रीय दलित महिला संघ , MDMS (महाराष्ट्र दलित महिला संगठन ) का गठन 1995 में किया गया,(भारतीय रिपब्लिक पार्टी) महिला शाखा की स्थापना हुआ। 2009 के नेशनल क्राइम स्टैटिक्स के अनुसार ,"छेड़छाड़ 23,397 ,बलात्कार 38,456 अपहरण 387 यौन उत्पीड़न 25,741 और अनैतिक तस्करी 2474 मामले दर्ज़ हुए है।'द वायर ' के अनुसार 2019 में 405861 मामले दर्ज़ हुए जिसमे 59853 मामले केवल उत्तर प्रदेश के है 2018 में 59445 और 2017 में 56011 मामले जिसमें बलात्कार के 3065 और नबालिक मामले 270 दर्ज हुए हैं। परन्तु यह ध्यान दिया जाना चाहिए देश ही नहीं बल्कि राज्यों में दलित महिलाओं के खिलाफ 90 प्रतिशत अपराध पुलिस को सामाजिक अस्थिता के डर और व्यक्तिगत सुरक्षा और सुरक्षा  खतरे के डर से पुलिस को सुचना नहीं दी जाती हैं।दलित महिलाओं के लिए बराबरी का दर्ज़ा हासिल करना उन विशिष्ट उद्देश्यों में से एक था जो भारत के संविधान की राज्य नीति की प्रस्तावना , मौलिक अधिकारों और निर्देशक सिध्दांत में निहित है।सामाजिक परिवर्तन एक जटिल प्रक्रिया है जो महिलाओं और विभिन्न वर्गों को सामान रूप से प्रभावित नहीं  करती हैं , इसलिए की स्थिति को आसानी से परिभाषित नहीं  किया जा सकता है।  इस देश में राजनितिक शक्ति पर लम्बे समय से वर्चस्व वाली उच्च जाति के पुरुषों का एकाधिकार रहा है ,जिससे दलित महिलाओं की हालत में सुधार करने वाले बदलाव से वंचित कर दिया यह स्पष्ट रूप से समाज की असमानताओ को दर्शाता है। लेकिन सामाजिक कार्यक्रमों , महिलाओं के कल्याण के लिए कानून बनाने में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका रही होगी , महिलाओं की सक्रिय राजनीति में हिस्सेदारी और राष्ट्रीय विकास प्रक्रिया में उनकी क्षमता पर विचार करने  दलित महिलाओं की हिस्सेदारी बहुत काम है जो  उनके लिए खेदजनक और दुर्भाग्यपूर्ण है राजनीति में सरकार में संठनात्मक संरचना नेतृत्व और सत्ता के बटवारे में ज्यादातर पुरुषों का ही वर्चस्व है , धन और जाति महत्वपूर्ण कारक है जो सनजीक , आर्थिक स्थिति सीधे निर्णय लेने में बड़ी भूमिका निभाती है।दुर्भाग्य से भारत में सभी राजनितिक दाल महिलाओं की समानता के बारे में बहुत अधिक बात करते है। लेकिन दलित महिलाओं को पूरी तरह से नज़र अंदाज कर दिया है , जहाँ उनकी राजनितिक स्थिति और भागीदारी नगण्य है। यह बहुत दुखद है कि दलित महिलाओं को उन सभी राजनितिक दलों ने प्रतिनिधित्व नहीं दिया है जो सामाजिक न्याय को दर्शाते है कुछ महिलाओं ने वास्तव में भागीदारी में अच्छा प्रदर्शन किया है लेकिन उनकी सामाजिक और आर्थिक पृस्ठभूमि और शिक्षा के निम्न स्तर के साथ उन्हें शक्ति साझाकरण और निर्णय लेने में अपनी जिम्मेदारी में परिपक्व होने के लिए उचित मार्गदर्शन और समय की आवश्यकता होती है. जिला परिषद और मंडल पंचायत में दलित महिलाओं का प्रतिनिधित्व वास्तव में महिलाओं की राजनीति दृश्यता को व्यापकता प्रदान नहीं करता है , इसलिए विधानसभाओं और संसद में आरक्षण का दायरा और प्रतिशत बढ़ाने का प्रयास किया जाता चाहिए राजनितिक दलों को विशेष रूप से दलित महिलाओं के लिए आरक्षण को सख्ती  करना चाहिए। 

उत्तर प्रदेश की दलित महिलाओं की विभिन्न क्षेत्रों की स्थिति का अध्ययन --

1. अनुसूचित जाति महिलाओं की सामाजिक स्थिति --भारतीय समाज संरचना में दलित महिलाओं की असमानता सबसे गंभीर और अस्वीकार्य है। क्योंकि इसका सीधा प्रभाव उनकी सामाजिक स्थिति पर पड़ता है असमानता व्यवथित है जो सामाजिक मानदंडों नीतियों और प्रथाओं द्वारा निर्मित है जो शक्ति , धन और अन्य आवश्यक सामाजिक संसाधनों के अनुचित वितरण को बढ़ावा देती है दलित महिलाओं को भारतीय समाज में विभिन्न प्रकार के बहिष्कार और भेदभाव का सामना करना पड़ता है। आज भी दलित महिलाओं को उनके परिवारों के साथ गांव के किनारों पर अलग-अलग बस्तियों में या गांव के एक कोने के मोहल्लों में , नागरिक सुविधाओ से रहित पेयजल , स्वास्थ्य देखभाल , शिक्षा , सड़कों तक पहुँच आदि से वंचित किया जाता है। शहरी क्षेत्रों में उनके झुग्गी बस्तियों  में बड़े पैमाने पर घर पाए जाते  है जो आमतौर पर बहुत ही अस्वच्छ वातावरण में स्थित होते है। दलित महिलाएं सबसे कमज़ोर समूह ,  आसानी से शोषण और हिंसा के शिकार होते है भारतीय समाज में उनका जीवन सबसे असुरक्षित है , भारतीय समाज की माध्यमिक भूमिका पितृसत्तामक और पदानिकृमित संरचना के कारण , उनमें से 90 % कई समस्यायों का सामना कर रहे है , उन्हें पुरुषो की तुलना में अधिक हिंसा का सामना करना पड़ता है। धार्मिकता के नाम पर उनका शोषण जैसे नग्न पूजा , देवदासी  की प्रथा और ऐसी तरह की अन्य प्रथाओं ने उन्हें हिंसा और भेदभाव के प्रति अधिक मजबूर बना दिया है। Encyclopedia of Dalit in india 2002 से अधिकांश खेतिहर मजदूर के रूप में काम कर रही है। इस प्रकार दलित महिलाओ के सामाजिक नुकसान और सशक्तिकरण के बिच इतिहासिक और समकालीन दोनों सम्बन्ध है। रमाशंकर यादव ( विद्रोही ) ने क्या खूब है......  

                       कुछ औरतो ने अपनी इच्छा से कूदकर जान दी थी 

                        ऐसा पुलिस के रिकार्ड में दर्ज है ,

                    और कुछ औरतें अपनी इच्छा से चिता में जलकर मरी थी

                     ऐसा धर्म की किताबों में लिखा हुआ है।

मैला ढ़ोने वाली ज़्यादातर दलित महिलाएं है जिनका कार्य सूखे गड्ढे वाले शौचालयो से मानव मल को साफ़ करना , मैला ढ़ोने में लगे लोंगो को दलितों में सबसे निचले पायदान पर देखा जाता है। उनके साथ भेदभाव किया जाता है ,Human Rights Watch 2009 के दिए गए रिपोर्ट के अनुसार व्यसायों को न केवल उनकी अनिश्चता और घटिया काम करने की स्थिति की विशेषता है , बल्कि आमतौर पर श्रम सुरक्षा कानूनों और नीतियों से भी बाहर रखा जाता है , दलित महिलाएं जिन्हें अपमानजनक कार्य के लिए मजबूर किया जाता है साथ ही उनके साथ कम मजदूरी , लम्बी अवधि की बेरोजगारी और काम के कम अवसरों  माध्ययम से भेदभाव किया जाता है श्रम अधिकारों के संरक्षण के उपायों की कमी के साथ जोख़िम भरे कार्यस्थलों में प्रवासी दलित महिलाओं के व्यावसायिक चोट के प्रति अधिक संवेदनशील बना दिया जाता है , इसके अलावा उप -ठेकेदार अल्पकालित श्रम की उभरती समस्या कारण उनके लिए और अधिक कठिन हो जाता है। हर वर्ष काम की तलास में लाखों दलित परिवार पलायन करते है गावों में आजीविका के धराशायी होने के कारण वे पलायन को मजबूर हो जाते है , प्रवासियों में दलित महिलाएं सबसे ज्यादा असुरक्षित है कम - कुशल या अकुशल महिलाओं को कम वेतन देने वाले  , असंगठित क्षेत्र में रखा जाता है , जिसमें शोषण अधिक जोख़िम होता है , प्रवास के दौरान दलित वयस्क लड़कियों  तस्करी बड़े अनुपात में  होती है , दलित प्रवासियों को उन खतरों सामना करना पड़ता है। 

उत्तर प्रदेश के विभिन्न जिलों और गावों का अध्ययन (फिल्ड वर्क)--                                                                                                           उत्तर प्रदेश के विभिन्न जिलों और गावों का मेरे द्वारा किया गया फिल्ड वर्क -- जब मै कौशाम्बी जिले के रघुनाथपुर ग्रामपंचायत का अध्ययन तो मुझे चला की इस गांव में अनुसूचित जाति के कुल दस परिवार निवास करते है,अगर उनकी सामाजिक स्थिति देखे तो सवर्णो के द्वारा छुवाछूत का शिकार होना  पड़ता है और उच्च जातियों द्वारा प्रताड़ित किया जाता है और अगर इनके मोहल्ले की को देखे तो निकलने के लिए सड़क नहीं बारिश के समय लोगों का निकलना मुश्किल हो जाता है। इस गांव में एक भी दलित परिवार में एक भी सरकारी नौकरी नहीं है और शैक्षिक योग्यता बीस प्रतिशत होगी लोग खेती पर निर्भर रहते है.                                                                                                         जातिगत  भेदभाव की प्रतारणा केवल उच्च जातियों द्वारा ही नहीं बल्कि दलित समाज में दलित महिलाओं द्वारा भी एक दलित महिला के द्वारा दूसरी दलित महिला का भी किया जाता है उदाहरण अगर चामर महिला है तो वो पासी या खटिक महिला में जातिगत भेदभाव करती है.वर्तमान समय में भी दलित परिवार अभी भी गांव के किनारे निवास  करते है। 

बुंदेलखंड और पूर्वांचल में महिलाएं --                                                                                                   उत्तर प्रदेश के बुंदेलखंड और पूर्वांचल सहित सभी हिस्सों में जातीय विभेद का अभाव अधिक मात्रा में देखा जाता है जातीय ताने बाने में लिपटे भारतीय समाज के जातिगत बंधन आज भी ग्रामीण अंचलो में गहरे तक देखने को मिल जाते है। बुंदेलखंड के कई जिलों से लगातार दलित महिलाओं से होने वाले भेदभाव सामने आते है , सिर पर मैला ढोने , मंदिरों में प्रवेश  और जातिसूचक शब्दों का प्रयोग सामने आते है।                                                                                                       

2013 के एक शोध इंडियान इंस्टिट्यूट ऑफ स्टॅटीज के आधार पर जारी सयुंक्त राष्ट्र की रिपोर्ट में यह दावा किया गया है कि दलित अधिकारों के लिए संघर्ष वाले सामाजिक कार्यकर्ता मानते है कि उत्तर प्रदेश में दलित महिलाएं बड़े पैमाने पर भेदभाव का शिकार होती है.

2014 से 2020 तक NCRB की रिपोर्ट                                                          

  1. पिछ्ले सात वर्षो में कुल 3,01,359 मामले दलितों के ख़िलाफ़ दर्ज हुए है ,जिसमे नाबालिक लड़कियों के खिफाफ़ 45,435 मामले दर्ज किये गए है।                                            

  2. 2014 से 2020 बलात्कार के 19,608 (43.2 %) जिसमे 2020 में ये संख्या 5% ज्यादा बढ़ गई है. 

  3. 2014 से 2020 लज्जाभंग के अपराध 21060 (46.4%) घटनाएं दर्ज हुई है ,हर दो घंटे में एक दलित महिला और लड़की के साथ बलात्कार और यौन उत्पीड़न की घटनाएं सामने आती है। 

  4. अनुसूचित जाति के ख़िलाफ़ अत्याचार 2018 में 42,793 और 2019 में 45,935 7.3% की वृद्वि दर्ज की गई है। 2016 में दलित महिलाओं के ख़िलाफ़ 40,081 अपराध दर्ज किए गए है। 

  5. 2017 से 2018 एक साथ मिलाया जाये तो कुल मामले 86,000 अपराध दर्ज हुए है। 6. 2019 में कुल 62,195 मामले दर्ज हुए है दलित महिलाओं  ख़िलाफ़। 

                 

उत्तर प्रदेश में अनुसूचित जाति की महिलाओं की राजनितिक भागीदारी और सशक्तिकरण --  

अनुसूचित जाति की महिलाओं को राजनितिक रूप से हाशिए पर रखा गया है ग्रामीण दलित महिलाओं को निर्णय लेने की प्रक्रिया में बहुत ही कम जाता है।भारत में स्थानीय पंचायत में दलितों के प्रतिनिधित्व के लिए कोटा प्रणाली है लेकिन इनमें दलित महिलाएं पंचायत में अपनी शक्ति का प्रयोग करने में असमर्थ है , उन्हें पुरुषो और प्रमुख जाति द्वारा प्रतिक्रिया दबाव और कभी कभी हिंसा का सामना करना पड़ता है अधिकांश उदाहरणों में एक दलित महिला पंचायत में अपनी आवाज़ उठाने का कोई सामर्थ्य नहीं जुटा पाति है क्योकि उनका पति उनका प्रतिनिधित्व  और निर्णय  जिसे आम शब्दों में प्रधानपति कहा जाता है.

प्रधानपति--

सशक्तिकरण की लड़ाई हमेशा से सत्ता में बराबर की साझेदारी की लड़ाई रही है यही बात महिला सशक्तिकरण को लेकर भी रही है दरअसल जब भी बात नारीवाद की होती है उसमे महिला और पुरुष के बीच शक्ति के समान बटवारे की बात निहित होती है चूँकि हम एक लोकतान्त्रिक समाज का हिस्सा है जहां चुनी गई सर्कार के रूप में एक 'लोककल्याणकारी राज्य' की कल्पना की गई है ऐसे में सरकार समय समय पर योजनाओं और नवीन प्रणाली के जरिए सामाजिक परिवर्तन की पहल करती है। भारत गावों  है महात्मा गाँधी कहते थे कि भारत का विकास गावों के विकास से ही संभव हो सकता है इसलिए ही उन्होंने पंचायती राज की वकालत की थी समाज के पितृसत्तात्मक होने के कारण महिलाओं की सामाजिक स्थिति काफ़ी बेकार है ऐसे में देश के सामाजिक आर्थिक ढांचे को सुधरने और सत्ता में महिलाओ  की भागीदारी सुनिश्चित करने के उद्देश्य से अप्रैल 1993 को संविधान के 73वें और 74वें संशोधन के अंतर्गत पंचायती राज एक्ट के तहत पंचायतो में 33 प्रतिशत सीट्स महिलाओं के लिए आरक्षित कर दी गई इस  पंचायत में प्रधान के  महिला सशक्तिकरण का लक्ष्य  किया जा सकेगा और आकड़ो की माने तो UNICEF की रिपोर्ट के अनुसार उत्तर प्रदेश की 10 में से 7 महिला प्रधान अपने संवैधानिक अधिकारों के बारे में नहीं जानती  है केवल 3 महिलाएं यह जानती है कि प्रधान के रूप में उनकी क्या भूमिका और जिम्मेदारियां है इस प्रकार देखा जाए तो संविधान द्वारा दिए गए 33 प्रतिशत आरक्षण में महज़ 3 प्रतिशत महिलाएं असलियत में प्रतिनिधित्व करती है। 

                                                                              ग्रामीण  प्रचलित 'प्रधानपति 'व्यवस्था को समझना है तो ' ऐमज़ॉन प्राइम ' पर हाल ही में प्रसारित 'पंचायत 'जो उत्तर प्रदेश के फुलेरा से सम्बंधित है जो प्रधानपति का सटीक उदहारण है। इस सीरीज़ में गांव की आधिकारिक प्रधान मंजू देवी चुनाव लड़ती है लेकिन असल में केवल उनके नाम से चुनाव लड़ा जाता है बाकी सब कुछ उनके पति ब्रजभूषण दुबे का देखते है,मंजू देवी घर के भीतर चूल्हा-चौका संभालती है ,प्रधानी के किसी काम से कोई मतलब नहीं है ठीक यही हालत ग्रामीण इलाको में अनुसूचित जाति की महिलाओं का होता है , कौशाम्बी जिला के जुवरा ग्रामसभा में 2015-2016 में अनुसूचित जाति की महिला सोना देवी आधिकारिक प्रधान थी परन्तु पंचायत का काम उनके पति कमलेश धोबी सँभालते थे। जिससे यह पता चलता है की घर कि  महिला का नामांकन कर दिया जाता है और उसके बाद पूरी कार्य प्रणाली से उन्हें कोई मतलब नहीं होता घर के पुरुष प्रधान बन जाते है और असली प्रधान चूल्हे में उनके लिए भोजन बनती रहती है अपने क्षेत्र के किसी कामकाज में उसकी कोई भूमिका नहीं रहती है महिलाओं को संवैधानिक रूप से बहुत सारे अधिकार मिले है परन्तु शिक्षा की कमी के कारण वह उन अधिकारों से वंचित रह जाती है या वंचित कर दी जाता है.

भारत के संविधान में दिए गए समता और समानता के अधिकार --

अनुच्छेद 14 -- विधि के समक्ष समता -- राज्य भारत के राज्यक्षेत्र में किसी व्यक्ति को विधि  समक्ष समता से या विधियों के समान संरक्षण से वंचित नहीं करेगा। 

अनुच्छेद 15 -- धर्म,मूलवंश,जाती,लिंग या जन्मस्थान के आधार पर विभेद का प्रतिषेध।

1. राज्य,किसी नागरिक के विरुद्ध केवल धर्म,मूलवंश,जाति,लिंग,जन्मजात या इनमें से किसी से किसी के आधार पर कोई विभेद नहीं करेगा 

2. कोई नागरिक केवल धर्म,मूलवंश,जाति,लिंग,जन्मजात या इनमें से किसी के आधार पर 

(क) दुकानों,सार्वजनिक भोजनालयों,होटलों और सार्वजनिक मनोरंजन स्थानों में प्रवेश 

(ख) पूणतः या भगत :राज्य निधि से पोषित या साधारण जनता के प्रयोग के लिए समर्पित कुओं,तालाबों,स्नानघाटों,सड़कों और सार्वजनिक समागम स्थानों के उपयोग के सम्बन्ध में किसी भी निर्योग्यता,दायित्व,निबर्धन या शर्त के आधीन नहीं होगा।

3.इस अनुच्छेद की कोई बात राज्य को स्त्रियों और बालकों के लिए विशेष उपबंध करने से निवारित नहीं करेगी। 

4.इस अनुच्छेद की या अनुच्छेद 29 के खंड(2) की कोई बात राज्य को सामाजिक और शैक्षिक दृस्टि से पिछड़े हुए,नागरिकों के किन्हीं वर्गों की उन्नति के लिए या अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लिए कोई विशेष उपबंध करने से निवारित नहीं करेंगी। 

अनुच्छेद 17 -- अस्पृश्यता का अंत -- 'अस्पृश्यता' का अंत किया जाता है और उसका किसी भी रूप में आचरण निषिध्द किया जाता है "अस्पृश्यता "से उपजी किसी निर्योग्यता को लागू करना अपराध होगा जो विधि के अनुसार दंडनीय होगा। 

अनुच्छेद 18 -- उपाधियों का अंत --

  1. राज्य,सेना या विद्या सम्बन्धी सम्मान के सियाव और कोई उपाधि प्रदान करेगा। 

  2. भारत का कोई नागरिक किसी विदेशी राज्य से कोई उपाधि स्वीकार नहीं करेंगे। 

  3. कोई व्यक्ति जो भारत का नागरिक नहीं है राज्य के आधीन लाभ या विश्वास के किसी पद को धारण करते हुए किसी विदेशी राज्य से कोई उपाधि राष्ट्रपति की सहमति के बिना स्वीकार नहीं करेगा।

  4. राज्य के आधीन लाभ या विश्वाश का पद धारण करने वाला कोई व्यक्ति किसी विदेशी राज्य से या उसके अधीन किसी रूप में कोई भेंट उपलब्धि या पद राष्ट्रपति की सहमति के बिना स्वीकार नहीं करेगा।

 अनुच्छेद 21 -- प्राण और दैहिक स्वतंत्रता का संरक्षण - किसी व्यक्ति को उसके प्राण या दैहिक स्वतंत्रता से विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अनुसार ही वंचित किया जाएगा,अन्यथा नहीं। 

21(क)-शिक्षा का अधिकार -- राज्य छः वर्ष से चौदह वर्ष तक की आयु वाले सभी के लिए निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा देने का ऐसी रीति में जो राज्य विधि द्वारा अवधारित करे उपबंध करेगा। 

 दलित महिलाओं की आर्थिक स्थिति --

दलित महिलाओं के लिए रोजगार के अवसर पैदा करने के लिए सरकार ने आरक्षण नीति लागू की हालांकि आरक्षण प्रणाली से दलित महिलाओं को केवल न्यूनतम लाभ हुआ है,यह आंशिक रूप से इसलिए है क्योंकि यह प्रणाली केवल सरकारी क्षेत्रों पर लागू होती है , इसके आलावा अलावा इस प्रणाली के त्रुटिपूर्ण होने का भी दवा किया जाता है क्योंकि उच्च जाति के राजनेताओं के वर्चस्व वाली सरकार की ओर से प्रतिबद्धता की कमी के कारण कई नौकरियों में है। 2001 की जनगणना  आकड़े बताते है कि 26% गैर-दलित कार्यबल की तुलना में आधे से अधिक दलित कार्यबल भूमिहीन खेतिहर मजदूर थे। 2011 की जनगणना में 1329 मिलियन दलित महिला मुख्या श्रमिकों में से 8.83 मिलियन खेतिहर मजदूर के रूप में और 2.33 मिलियन कृषक के रूप में बताये गए थे। 3.93 मिलियन दलित महिलाओं को भी सीमांतश्रमिकों के रूप में सूचित किया गया (जनगणना2011) राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षणN.S.S 2014 रोजगार के लिए 200 व्यक्तियों पर अध्ययन आकड़े बताते है कि 60% से अधिक दलित श्रमिक ग्रामीण क्षेत्रों में रहते थे.दलित परिवार की निम्न आय और उच्च स्तर या गरीबी की मात्रा से पीड़ित है यह गरीबी रेखा से निचे आने वाले व्यक्तियों के आपुपत को भी दर्शाया है और जिसे उपभोग व्यय का एक महत्वपूर्ण न्यूनतम स्तर भी कहा जाता है इन समूहों में दलित महिला परिवारों का प्रतिनिधित्व अधिक था। 

निष्कर्ष और फ़ाइनल रिपोर्ट-- उत्तर प्रदेश की अनुसूचित जाति की महिलाओं का अध्ययन में विभिन्न स्थितियों का अध्ययन किया गया है जिसमें उनकी सामाजिक,आर्थिक एवं राजनैतिक स्थिति का अध्ययन किया गया है। 2011 की जनसँख्या के अनुसार अनुसूचित जाति की कुल आबादी 25 प्रतिशत है। इतनी बड़ी आबादी होने के बावजूद भी दलित महिलाओं की सामाजिक स्थिति में आज़ादी के बाद भी इनकी सामाजिक स्थिति में ज्यादा सुधर नहीं हुआ गावों में आज भी छुवाछुत और जातिसूचक शब्दों का प्रयोग दलित महिलाओं के लिए किया जाता है और इन्हें हीनभावना की दृस्टि से देखा जाता है परन्तु गावों में दलित समाज में यह भी देखा भी देखा गया है की दलित महिलाएं अपने ही समुदाय में एक दूसरी महिला को हीनभावना से देखती है।आज भी धर्म के नाम पर इनका शोषण किया जाता है धर्म के नाम पर देवदासी जैसी कुप्रथाओं का शिकार होती है।और पितृसत्तात्मक समाज इन्हें इनके अधिकारों से वंचित रखता और इनके अधिकारों का शोषण करता रहता आवाज़ उठाने में धमकाया और डराया जाता है। दलित महिलाओं की राजनीति  भूमिका देखे तो उत्तर प्रदेश के 75 जिलों में 818 क्षेत्र पंचायत प्रमुख में से अनुसूचित जाति की 107 महिलाएं क्षेत्र पंचायत प्रमुख है(7.64) भूमिका है जो कि बहुत ही कम भूमिका है और अगर इनकी योग्यता देखे तो बहुत ज्यादा पड़ी लिखी नहीं है और इनके सामने सबसे ज्यादा प्रधानपति की समस्या भी और समाज में उच्च वर्गों द्वारा दबाव रहने की समस्या बहुत बड़ी है जिसका मुख्या कारण अशिक्षित होना है और अपने अधिकारों को न जानना मुख्या रूप से कारण है। इसके साथ दलित महिलाओं की आर्थिक स्थिति मुख्या रूप से कमज़ोर है क्योंकि दलित महिलाओं का सबसे ज्यादा अशिक्षित होना और भी आर्थिक रूप से और भी इन्हें कमज़ोर बनता है। 

समाधान -- दलित महिलाओं को सबसे पहले शिक्षित होना और अपने संवैधानिक अधिकारों को जानना की उनके संवैधानिक अधिकार क्या है जिससे वो इस रूढ़िवादी और पितृसत्तत्मक समाज से  अधिकारों की मांग कर सके और अपनी एक सामाजिक पहचान बना सके जो शादियों से उनसे ये समाज छिनता आया है और दलित महिलाओं अपने समुदाय में एकता भावना सबसे पहले लानी होगी ताकि कोई और उनका शोषण न कर सके। दलित महिलाएं शिक्षित होंगी उनकी आर्थिक स्थिति बदलेगी जो उनको समाज और देश में एक नयी पहचान बनायेगी। 

 

सन्दर्भ -

  1. दलित स्त्री सवालों से टकराते हुए -डॉ रजतरानी'मीनू' राजकमल प्रकाशन नई दिल्ली मार्च 2016 . 

  2. इंटरनैशनल जॉर्नल ऑफ़ एप्लाइड रिसर्च 2021-राहुल कुमार यादव लखनऊ विश्वविद्यालय उत्तर प्रदेश.

  3. http://www.ijmra.us 2018 

  4. दलित महिलाओं की समस्या और समाधान -अरविन्द यादव इलाहाबाद विश्वविद्यालय 

  5. पत्रिका(आर्टिकल) लक्ष्मी नारायण शर्मा लखनऊ 17 फ़रवरी 2018 

  6. भारतीय राजनीति में दलित स्त्रीवाद-एक विश्लेषणात्मक अध्ययन - संदीप कुमार मील राजस्थान विश्वविद्यालय 

  7. इंटरनेशनल जर्नल ऑफ़ रिसर्च इन सोशल साइंसेज -वोल्लुम 8 -2018 

  8. http://incrb.gov.in index.htm (19-07-2012)

  9. census of  india 2011 

  10. https://sec.up.nc/Eleclive/winnerList.aspx 

  11. बाबासाहेब डॉ भीमराव अम्बेडकर के वैचारिक संघर्ष की उपज है दलित साहित्य -प्रो कालीचरण 'स्नेही ' राजकमल प्रकाशन नई दिल्ली 2017  

 रावेंद्र प्रताप सिंह (भवन्स मेहता महाविद्यालय भरवारी कौशाम्बी 212201 )

संपर्क करें:- raavis.1207@gmail.com