1857 के गदर में इलाहाबाद और कौशाम्बी के गुमनाम नायक --- मौलवी लियाकत अली रावेन्द्र प्रताप सिंह
मौलवी लियाकत अली का जन्म 1817 में उस समय के ब्रिटिश भारत वर्तमान में भारत के उत्तर प्रदेश राज्य के इलाहबाद वर्त्तमान में कौशाम्बी के महगाव में हुआ था वह एक मुस्लिम धार्मिक नेता थे | एक धार्मिक शिछक ,एक ईमानदार धर्मनिस्ट मुस्लमान और महान साहस और वीरता के व्यक्ति थे। .चैल के जमींदार उनके रिश्तेदार और और अनुयायी थे।. उन्होंने अपने लोगो और गोला-बारूद के साथ मौलवी का समर्थन किया | नतीजन बड़ी मुश्किल से मौलवी लियाकत अली द्वारा खुसरों बाग़ पर क़ब्ज़ा करने और भारत की स्वतंत्रा की घोसणा करने के बाद अंग्रेजो ने इलाहाबाद शहर पर नियन्तण कर लिया और खुसरो बाग से मौलवी लियाकत अली के आधीन सिपाहियों का मुख्यालय बन गया . जिन्होंने कार्यभाल संभाला हालांकि विद्रोह को तुरंत दबा दिया गया और खुसरो बाग को अंग्रेजो ने दो सप्ताह के बाद वापस ले लिया। खुसरो बाग़ मुग़ल सम्राट बादशाह जहाँगीर के पुत्र शहज़ादा खुसरो द्वारा बनवाया गया था। इस विशाल शाही बाग के अमरूदों का दुनिया में कोई जोड़ नहीं है.मौलवी लियाकत अली को चायल इलाके के जमीरदारों तथा आम जनता ने खूब मदद पहुंचाई बादशाह बहादुर शाह ज़फर ने उनको इलाहाबाद का गवर्नर घोषित किया। मौलाना ने शासन थामते ही तहसीलदार , कोतवाल और अन्य अफसरों की नियुक्ति कर नगरों में शांति स्थापना का प्रयास किया। मेरठ की क्रन्ति की खबर 12 मई को ही इलाहाबाद पहुंच गयी थी। उस समय इलाहाबाद किले में यूरोपीय सिपाही या अधिकारी नहीं थे.कुल 200 सिक्ख सैनिक ही किले की सुरक्छा में लगे थे। उत्तर पश्चिम प्रांतो की सुरछा के लिए इलाहाबाद का किला अंग्रजो की शक्ति का मुख्या केंद्र था और वही बड़ी मात्रा में गोलाबारूद का भंडार भी था। अगर आज़ादी के सिपाही इस किले पर लेते तो संघर्ष की तस्वीर ही बदल जाती। असली क्रांति का सूत्रपात 6 जून 1857 को हुआ, तब तक कई अंग्रेज अधिकारी यहाँ पहुंच गए थे। उस दिन बाग़ी सैनिको ने अंग्रेज अफसरों पर हमला बोल दिया कइयों को मौत के घाट उत्तार दिया। लेकिन 107 अंग्रेज सैनिक जान बचा कर किले में छिपने में सफल रहे उस समय छठी रेजिमेंट सिक्ख दस्तों का पड़ाव था। इलाहाबाद में क्रांति दबाने के लिए अंग्रेजों ने प्रतापगढ़ से सेना भेजी पर 5 जून को बनारस के क्रन्तिकारी भी यहाँ पहुंच गए थे। शमसाबाद में शफ़ी खान मेवाती के घर पर एक पंचायत जुटी। अंग्रेजों ने बाग़ी हवाओं के आधार पर खतरे की आशंका भाँप बनारस से आनेवाले क्रांतिकारियों को रोकने के लिए देशी पल्टन की दो टुकड़ियों और दो तोपों को दारागंज के करीब नाव के पुल पर तैनात कर दी गयी थी। किले की तोपों को बनारस से आनेवाली सड़क की ओर मोड़ दिया गया था। नगर की सुरछा में अलोपीबाग में पैदल सैनिकों की दो टुकड़ियों को तैनात थी। जबकि किले में 65 तोपची ,400 सिक्ख पैदल सैनिको को तैनात कर दिए गए थे। उसी दौरान दारागंज के सैनिको ने बगावत के लिए ललकारा अंग्रेजो को इसकी आहट मिल गयी तो उन्होंने सैनिको को प्रलोभन देकर 6 जून की रात 9 बजे तोपों को किले में ले जाने का आदेश दे दिया लेकिन सैनिको ने बगावत का फैसला ले लिए थे। अलोपीबाग के सैनिको ने लेप्टिनेट अलेक्ज़ेंडर को गोली मार दी परन्तु लेप्टिनेट हॉवर्ड जान बचाकर किले की ओर भागा इसके बाद अंग्रेज अधिकारी मार दिए गए व अफसरों के बंगले आग शिकार बन गए। इस घटना ने ब्रिटिश अधिकारियो को ओर चौकन्ना कर दिया ऐसा माना जाता है कि अगर उस समय सिक्ख सैनिक भी आंदोलन की धारा में शामिल हो जाते तो इलाहाबाद किला भी क्रांतिकारियों के कब्ज़े में आ जाता। दारागंज और किले के नजदीक की सुरक्षा चौकी पर कब्ज़ा कर लिया गया। यहीं नहीं पूरा नगर बगावत की चपेट में आ गया व 30 लाख रुपये का भरी भरकम खज़ाना अधिकार में आ गया। बागी नेताओ ने जेल में बंदियों को मुक्त करा दिया और तार की लाइन भी काट दी। जून 1857 को शहर कोतवाली पर क्रांति का हरा झंडा फहराने लगा। नगर में जुलूस निकाला जाने लगा और आसपास के गावों समेत हर जगह बगावत का बिगुल बज गया।
उस समय के हालात को सर जॉन कुछ इस प्रकार लिखते है-'इलाहाबाद में न केवल गंगापार बल्कि द्वाबा क्षेत्र की ग्राणीण जनता ने विद्रोह कर दिया। कोई मनुष्य नहीं बचा था जो हमारे ख़िलाफ़ न हो'' 11जून को कर्नल नील जैसे क्रूर ब्रिटिश अधिकारी को इलाहाबाद की बग़ावत (ग़दर ) को दमन के लिए रवाना किया गया नील ने इलाहाबाद किले से मोर्चा संभाला उसकी सेना काफ़ी बड़ी थी जिसमे अधिकतर गोर सिक्ख तथा मद्रासी सिपाही। थे 12 जून को नील ने दारागंज के नाव के पुल पर कब्ज़ा किया जबकि 13 जून को झूसी में भी क्रन्तिकारी गतिविधिया दबा दी गई। 15 जून को मुट्टीगंज और कीटगंज पर अधिकार करने के बाद 17 जून को खुसरो बाग़ भी अंग्रजो के हाथ लग गया। चौक जी.टी रोड पर नीम के पेड़ पर नील ने 800 लोगों को फांसी पर लटका दिया। खुद जार्ज केम्पवेल ने नील के कारनामों की निंदा करते हुए कहते है,''इलाहाबाद में नील ने जो कुछ किया व कत्त्लेआम से बढ़ कर था। ऐसी यातनाये भारतवासियो ने कभी किसी को नहीं दी।
इलाहाबाद के ही निवासी जाने माने इतिहासकार व राजनेता स्व: विश्वभरनाथ पांडेय लिखते है-''हर संदिग्ध को गिरफ्तार कर उसे कठोर दंड दिता गया। नील ने जो नरसंहार किया उसके आगे जलियावाला बाग़ भी काम था। केवल तीन घंटे चालीस मिनट में कोतवाली के पास नीम के पेड़ पर ही 634 लोगों को फांसी दी गई। सैनिको ने जिस पर शक किया उसे गोली से उड़ा दिया गया। चारो तरफ भरी तबाही मची थी। नील क्रांतिकारियों को एक गाड़ी में बिठा कर किसी पेड़ के नीचे ले जाया जाता था और गर्दन में फांसी का फंदा दाल दिया जाता था फिर गाड़ी हटा ली जाती था।''
नील का पत्र-- 
नील के पत्र का हिंदी अनुवाद
लेफ्टिनेंट कर्नल नील से लेकर सेना के डिप्टी जनरल तक.17 जून को मुझे इलाहाबाद अपने आगमन की सूचना देने का गौरव प्राप्त हुआ है.भारतीय विद्रोंह का इतिहास 11वें क्षण की दोपहर चालीस आदमियों की एक पार्टी के साथ,देश की अशांत स्थिति के परिणामस्वरूप फ़्यूलियर्स को बनारस से आगे बढ़ने में अधिक कठिनाई हो रही थी,सड़क आंशिक रूप से सुनसान थी और सभी घोड़ो को विद्रोह में ले जाया गया.मैंने पाया कि नदी के किनारे को छोड़कर,इलाहाबाद काफी गहराई से घिरा हुआ है,यहाँ केवल नदियों से ही पहुंचा जा सकता ;गंगा पर नावों का पुल आंशिक रूप से नष्ट हो गया ;यहाँ और दिरागुंगे गांव विद्रोहियों के कब्ज़े में था बनारस सड़क के आंत में झाँसी गांव में पहुँचने पर,मुझे अपनी बाई ओर निचे जाना पड़ा ;मै भाग्यशाली था कि.मुझे अपनी बाई ओर नीचे जाना पड़ा ;मैं भाग्यशाली था कि मुझे गंगा के बाएं किनारे पर एक नाँव लाने के लिए कुछ मूल निवासियों को रिश्वत देनी पड़ी,जिसमें मैंने अपने कुछ लोंगो को शामिल किया।इस समय तक क़िले में मौजूद लोंगो ने हमें देख लिया था। इलाहाबाद में नरसंहार--इलाहाबाद नरसंहार में महान क्रांतिकारी चंद्रशेखर आज़ाद को समर्पित (कंपनी बाग़ ) का कुआँ लाशों से पट गया था। मौलवी लियाकत अली दिल्ली आये और बख्त खान से मिले जो उन्हें मुग़ल बादशाह बहादुर शाह ज़ाफ़र सामने ले गए। मौलवी ने बहादुर शाह ज़ाफ़र से सारी घटना बताई मौलवी लखनऊ लौट आये जुलाई 1857 में फतेहपुर की लड़ाई के बाद लोगों को सबक सिखाने के लिए हैवलॉक द्वारा सिक्ख सेना को फतेहपुर शहर को जलाने का आदेश दिया था। इसके बाद सिक्खों को फिर नील के साथ इलाहाबाद में शामिल होने का आदेश दिया गया। मौलवी ने फिर से अपने साथियो के साथ फतेहपुर - कानपुर रोड पर हैवलॉक को रोकने की कोशिश की लेकिन इसमें असफल रहें।
मौलवी साहब के दोहें
ऐ बिरादर ये हदीस-ए-नबवी तू सुन ले , बाग़-ए-फ़िरदौस है तलवारों के साये तले!!
बर्बाद दीन के लदना न पै तमाए बिलाद ,अहल-ए-इस्लाम इसे शरा में कहते है ज़िहाद!!
बारह सौ बरस के बाद आई है दौलत आगे,हैफ़ इस
दौलत बेदार से मोमिन भागे !!!
महारानी विक्टोरिया की उद्घोषणा -- 1857 के विद्रोह ने भारत के इतिहास में एक नये चरण की शुरुवात की भारत सरकार की शासक इंग्लैंड की तत्कालीन शासन कर रही महारानी विक्टोरिया के हांथो में सौप दिया गया। ब्रिटिश कैबिनेट के एक मंत्री जिसे भारत में प्रशासन के लिए जिम्मेदार बनाया गया था। इसके बाद भारत के गवर्नर -जरनल को वायसराय कहा जाने लगा। महारानी विक्टोरिया एक उद्घोषणा जारी की और इसे नवम्बर 1858 को इलाहाबाद में आयोजित एक दरबार में पड़ा गया।
बताया जाता है कि महारानी विक्टोरिया की उस उद्घोषणा सबसे पहले उस नस्ट की गई ज़ामा मस्ज़िद के मैदान से घोषित की गई थी.दरअसल इस सबने ब्रिटिश सरकार को इलाहाबाद को प्रांत का केंद्र बनानेके लिए मजबूर था.1834 में इलाहाबाद आगरा प्रांत की सरकार की सीट बन गया और एक उच्च न्यायालय की स्थापना की गई। इलाहाबाद में विद्रोह के बाद अंग्रजो ने राज्य के दिल्ली क्षेत्र को छोटा कर दिया,इसे पंजाब में मिला दिया और उत्तर - पश्चिम प्रांतों राजधानी को इलाहाबाद में स्थानांतरित कर दिया जहाँ यह अगले बीस वर्षो तक रही। जनवरी 1858 में लॉर्ड कैनिंग ने एक बार फिर से इलाहाबाद राजधानी घोषित कर दिया,1868 में उच्च न्यायालय को भी आगरा से वापस इलाहाबाद स्थानांतरित कर दिया गया।
कानपुर में मौलवी साहब -- मौलवी लियाक़त अली अपने 3000 साथियों और विश्वासपात्रों साथ कानपुर के लिए रवाना हुए गंगापार कर संगरूर कैम्प पहुंचे और वहाँ से कानपुर पहुँचे और नाना साहब से मुलाक़ात की। मौलवी साहब इलाहाबाद से भागना अंग्रेजो के लिए एक बड़ा झटका था , इसलिए उन्होंने उनकी गिरफ़्तारी के लिए इनाम की घोसणा की इलाहाबाद में नील अत्याचारों के बारे में खबर मिली जिसे उन्होंने नियमित रूप से नाना साहब को बताया जिससे नाना साहब नाना साहब क्रोधित हो गए और उन्होंने इलाहाबाद का बदला ठान ली। नाना साहब ने कानपुर में जनलर व्हीलर को हराया और अंग्रेजो को गंगा में नावों द्वारा कानपुर छोड़ने की अनुमति दी गई।
1857 का विद्रोह - गौतम गुप्ता द्वारा भारत सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय प्रकाशन प्रभाग पृष्ठ संख्या 135
हिंदी अनुवाद-- डॉ सेन के अनुसार इलाहाबाद के मौलवी लियाक़त अली पहले ही कानपुर आ चुके थे और उन्होंने नील ही हरकतों के बारे में बताया था जो उन्होंने पहली बार इलाहाबाद में देखी थी।जब सैनिकों ने इलाहाबाद,फ़तेहपुर,वाराणसी और अन्य स्थानों पर अपने गावों की महिलाओं और बच्चों के निर्मम नरसंहार के दुखद विवरण सुने तो वे खुद को रोक नहीं सके।
इलाहाबाद में मौलवी साहब -- 06 जून 1858 की रातको को 9 बज कर 20 मिनट पर बनारस से आए पुलिस विद्रोहियों ने छठी इंफैक्ट्री के मैस पर हमला कर दिया जसमें पैदल सेना के जवान भी विद्रोहियों की मदद कर रहे थे जान बचाकर भाग रहे अंग्रेज उस समय वहीं 30 लाख रुपये छोड़ भाग गए इलाहाबाद में अनियन्त्रिक विद्रोहियों और ब्रिटिश सैनिकों द्वारा शहर में अनावश्यक लूटपाट , सार्वजनिक संपत्ति के विनाश और रक्तपात को देखा तो मौलवी लियाकत अली ने अपने तलवार और अंग्रेज़ो के ख़िलाफ़ जिहाद का एलान कर दिया।इलाहाबाद को अंग्रेजों से छीन लिया और अपनी सरकार चलाई और शहर में कानून व्यवस्था को लागू किया और दिल्ली में मुग़ल बादशाह बहादुर शाह जाफ़र के नाम के हरे और सफ़ेद झंडे जिसमें उगता हुआ सूरज दर्शाया गया था के साथ में शहर में एक जुलूस निकला सिपाहियों और पंडो का नेतृत्व रामचंद्र ने किया। मसलमानों की अगुवाई मौलवी लियाकत अली हुसैन ने की उनके नेतृत्व में इलाहाबाद की जनता , जिसमे आम मुस्लिम,ब्राम्हण,पंडो और पठान शामिल थे। अंग्रेजों के दमन के विरूद्ध मौलवी साहब से कन्धा मिलाकर बहादुर शाह जाफ़र की सत्ता और वैभव को पुनःस्थापित किया।
मुग़ल बादशाह बहादुरशाह ज़फ़र का झंडा
खुसरो बाग़ के संषर्ष का नेतृत्व (मौलवी लियाक़त अली)-- 7 जून को मौलवी लियाक़त अली ने खुसरो बाग को अपना सैन्य परिचालन मुख्यालय बनाया क्योंकि यह किले के पास शहर में उपलब्ध एकमात्र गढ़ वाली विशाल जगह जिसकी दीवारें किले की तरह ऊँची थी। इलाहाबाद में यमुना किनारे अकबर के बनाए किले में पैसठ तोपे , 400 सिक्ख सैनिकों एक चौकी और छठी मूल निवासी इंफैक्ट्री के 80 सैनिक थे। अंग्रेजों के लिए क़िले पूर्वी भारत में एक बहुत ही महत्वपूर्ण रणनीतिक स्थान था , खुसरो बाग से उन्होंने उनके विरुध्द युध्द चलाया और इलाहाबाद की क़िले को अपने हाथों में लेने कोशिश की लेकिन इसे हासिल करने में असफ़ल रहे। मौलवी साहब के चरित्र और बौद्धिकता की अखंडता से हिन्दू और मुसलमान दोनों समान रूप से प्रभावित थे। मौलवी लियाकत अली ने अंग्रेजों से खुसरो बाग में सात दिनों तक संघर्ष किया परन्तु असफल रहे।
लक्ष्मीबाई के मदद के लिए भेजा तोपची ख़ुदाबख्श को -- इलाहाबाद शहर पर नियंत्रण करते ही मौलवी साहब को खबर मिली कि रानी लक्ष्मीबाई मुश्किलों से घिर गयी है उन्होंने लक्ष्मीबाई की मदद के लिए अपने प्रसिध्द तोपची खुदाबक्श को झाँसी भेजा रानी लक्ष्मीबाई की मदद करने के लिए भेजा जहाँ सिंघिया की ग़द्दारी के कारण तोपची खुदाबक्श और रानी लक्ष्मीबाई लड़ते लड़ते शहीद हो गए। इस शहादत को सुनकर मौलवी साहब ग्वालियर भागे और अंतिम संस्कार में छिपकर शामिल रहें।
26 जुलाई 1857 को इलाहाबाद मजिस्ट्रेट से भारत सरकार के सचिव जी.एफ.एड.मोन्स्टीन को भेजी गई थी जिसे उन्होंने कानपुर में मिस्टर विलॉक ने प्राप्त किया।
सोरांव में मौलवी साहब -- जब मौलवी साहब ने विरजिस क़द्र की हार और लखनऊ के पतन को देखा,तो अपनी सेना को
केंद्रित किया और अपना ठिकाना इलाहाबाद के गंगापार क्षेत्र में
स्थानांतरित कर दिया उनका सोरांव
और आसपास के गावों से काफी समय तक सफलतापूर्वक संचलन हुआ उनका सम्मान
प्रभाव और आभा ऐसी थी की गंगापार के मैदान के लगभग सभी जमींदारी ने उनका
पूरे दिल से समर्थन किया और इलाहाबाद पर कब्ज़ा करने के बाद भी अंग्रेज़ो के
लिए विद्रोह को पूरी तरह से दबाना काफी मुश्किल था.
1857 की गाथा -मोतीलाल भार्गव पृष्ठ संख्या 190
1857 की गाथा-मोतीलाल भार्गव का हिंदी अनुवाद --''लखनऊ के पतन के बाद भी लियाक़त अली हज़ारों विद्रोहियों के साथ इलाहाबाद में गंगा नदी के दूसरी ओर सोरांव से काम कर रहे थे , वह अन्य नेताओं के साथ मिलकर काम कर रहे थे लेकिन वह अपनी गिरफ़्तारी की सभी कोशिशो से बच गये और भूमिगत हो गये।
भारत का पहला देशभक्ति गीत मौलवी लियाकत अली ने लिखा था
हम हैं इसके मालिक, हिंदुस्तान हमारा।
पाक वतन है कौम का, जन्नत से भी प्यारा।
यह है हमारी मिल्कियत, हिंदुस्तान हमारा।
भारतीय डाक विभाग द्वारा 2021 में जारी किया गया आवरण
इलाहाबाद में विद्रोह की खबर -- मेरठ और दिल्ली के विद्रोह की ख़बरें पहुंचीं तो इलाहाबाद के सरफ़रोश भी अंग्रेज़ सरकार के ख़िलाफ़ बग़ावत की योजना करने लगे। छटी रेजिमेंट के देसी सिपाहियों ने भी अपनी सूझ-बूझ से चालबाज़ अंग्रेज़ों को मात दी।6 जून की रात बग़ावत का एलान सुनते ही छटी रेजिमेंट के सैनिकों ने चालबाज़ अंग्रेज़ों पर धावा बोल कर उनकी चालाकी को मिट्टी में मिला दिया। उनके बंगलों को आग लगा दी गयी। सरकारी संपत्ति की खूब तोड़ फोड़ की गई। अंग्रेज़ों चारों ओर के हालात देख कर दहशत में आ गये। वह अपनी जानें बचाने के लिए इधर-उधर छिपते फिर रहे थे.मार-काट लूट-पाट और आगज़नी के बाद इलाहाबाद , देसी सेना अर्थात विद्रोहियों के क़ब्ज़े में आ गया। उधर स्वतंत्रता सेनानी मौलवी लियाक़त अली अपने मुरीदो (अनुयाइयों) की बड़ी संख्या के साथ स्वतंत्रता के संघर्ष में अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ कूद पड़े। उनहोंने इस मौके पर अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ ज़िहाद का एलान कर दिया।हज़ारों की संख्या में लोग मौलवी लियाक़त अली को अपना लीडर मानकर उनके नेतृत्व में इलाहाबाद को अंग्रेज़ों से ख़ाली करा दिया।
हिन्दू पैट्रियाट में मौलवी साहब के उल्लेख -- दिनांक 22 जुलाई 1858 में उल्लेख है कि "जुलाई 1858 में जबकि मौलवी शक्ति संपन्न थे ,इलाहाबाद में नदी के दूसरे किनारे अपने कुछ हज़ार साथियों सहित रुके हुए थे। उनका प्रधान कार्यालय सोरांव में था ,जिस पर उस समय तक आक्रमण नहीं किया गया था।" इस प्रकार मौलवी साहब देश को आज़ाद कराने के प्रयासों में लगे रहते थे। उनके वफ़ादार सैनिक साथी सभी तरह के कष्ट उठाते हुए भी उनका साथ नहीं छोड़ते थे। उन सभी का उद्देस्य देश की स्वाधीनता और फ़िरंगियो को देश के बाहर करना था। मौलवी लियाक़त अली जहां भी रहते ,अपनी इन्क़लाबी कार्यवाहियों को जारी रखते थे। उसके बग़ैर तो उनका जीवन ही अधूरा था।
लियाक़त अली ने रचना की थी अज़ादी के तराने की --
हम हैं इसके मालिक , हिन्दुस्तान हमारा ,पाक वतन है कौमों का यह जन्नत से भी प्यारा।
हमारी ये मिल्कियत , हिन्दुस्तान हमारा , इनकी रुहिनियत से रोशन है जग सारा।।
हिन्दुस्तान हमारा...
कितना कदीम , कितना नईस , सब दुनिया न्यारा , करती है ,जरखेज इसे यह गंग - जमुन की धारा।
ऊपर बर्फीला पर्वत है पहरेदार हमारा , नीचे साहिल पर बसता है सागर का झलकारा।।
हिन्दुस्तान हमारा...
इनकी खाने उगल रही हैं सोना हीरा - पारा इनकी शानो शौकत का है , दुनिया में जयकारा।
हिन्दू , मुसलमान , सिक्ख हमारा भाई हमारा ये है अज़ादी का झंडा इसे सलाम हमारा।।
हिन्दुस्तान हमारा
द वायर के के पांडेय द्वारा
न्ययॉर्क टाइम्स पर मौलवी के मुक़दमे पर एक रिपोर्ट
स्रोत- http://parganachel.blogspot.com/2015/03/maulvi‐liyaqat‐ali‐unsung‐hero of‐1857.html?m=1
कई वर्षो तक अंग्रेज़ों को चकमा देते रहे -- लियाक़त अली ने लाजपुर में स्वतंत्रता के लिए ब्रिटिश राज के ख़िलाफ़ गतिविधियों का अपना नया केंद्र बनाया -अपना नाम बदला और पद्ममा नाम ग्रहण किया और अपना निवास स्थान बदल - बदल पूरे 15 वर्षो तक अंग्रेज़ों को चकमा देते रहे ब्रिटिश हुकूमत के ख़िलाफ़ लड़ते रहे।1872 में मौलवी साहब के उनके 2 साथियों ने मुखबिरी की और मौलवी साहब को बॉम्बे रेलवे स्टेशन पर एक ब्रिटिश पुलिस अधिकारी स्टाइल द्वारा गिरफ़्तार कर लिया गया। उन्हें इलाहाबाद लाया गया और जिला एवं सत्र न्यायाधीस की अदालत में मुकदमा चलाया गया 24 जुलाई 1872 के फ़ैसले में मौलवी लियाक़त अली ने ईमानदारी से स्वीकार किया कि उन्होंने ब्रिटिश राज के ख़िलाफ़ बग़ावत किया है.और इस पर उनको गर्व है , मौलवी साहब तो उन तमाम परेशानियों को झेलने के आदी थे उन्हें सज़ा अंडमान की जेल में आजीवन क़ैद की सज़ा सुनाई गई 20 साल अंडमान की जेल में अंग्रेजों के जुल्म को सहते हुए 17 मई 1892 को अपने प्यारे वतन और दुनिया को अलविदा कह गए। मौलवी लियाक़त अली क़ादरी की देश की अज़ादी के लिए दी गई कुर्बानियो को वर्तमान में याद रखा जाना जरुरी है।
आज़ादी के बाद -- आज़ादी के बाद 1957 मेंभारत के प्रथम प्रधान मंत्री जवाहरलाल नेहरू ने मौलवी के वंशजों से मुलाक़ात की। उनकी तलवार और फटा हुआ कुर्ता - पायजामा इलाहाबाद संग्रहालय में संरक्षित हैं। उनके वंशज महगांव और करेली के कुछ इलाकों में बसें है। स्थानीय ग्रामीणों और उनके परिवार प्रयासों से , करेली में उनके नाम पर एक शैक्षणिक संस्थान और एक पुस्तकालय खोला गया।
1857 की क्रांति और भारतीय इतिहासकार:-
के.एम पणिक्कर :- यह सच है कि जिन लोगों का राज्य छिन गया था, जिनकी पेंशन बंद कर दी गई थी वे ही इस विद्रोह के नेता थे, किन्तु क्रांति का उद्देश्य अंग्रेज़ों को भारत से बाहर निकालकर देख में एक राष्ट्रीय राज्य की स्थापना करना था। इस दृष्टिकोण से यह ग़दर न होकर राष्ट्रीय क्रांति थी.
थोम्पसन एवं गैरेट :- यह विद्रोह एक मध्यकालीन गृह युद्ध था.
मौलाना आज़ाद :- मुझे इस बात में गंभीर संदेह है कि योजना बानी और आंदोलन चला वास्तविकता यह है कि विद्रोह बहादुरशाह के लिए उतना ही आश्चर्यजनक था, जितना अंग्रेज़ों के लिए.
जवाहर लाल नेहरू :- यह पुरानी व्यवस्था के ऊपर नयी व्यवस्था की जीत थी.
आर.सी.मजूमदार :- कुछ मिलाकर इस निष्कर्ष से हटना कठिन है कि 1857 में तथाकथित प्रथम स्वतंत्रता संग्राम न तो प्रथम न ही राष्ट्रीय और न ही स्वतंत्रता संग्राम था.
नोट -- इलाहाबाद संग्रहालय में जाने पर पता किया गया परन्तु किसी कारण से मौलवी साहब की तलवार और कुर्ता पायजामा निकाल दिया गया है।
सन्दर्भ -
जं
गे अज़ादी और मुसलमान फ़रोस मीडिया एंड पब्लिशिंग प्राइवेट लिमिटेड जामिआ
नगर नई दिल्ली प्रथम संस्करण
2019
ख़ालिद मोहम्मद ख़ान पेज न
.80
जंगे अज़ादी और मुसलमान फ़रोस मीडिया एंड पब्लिशिंग प्राइवेट लिमिटेड जामिआ नगर नई दिल्ली प्रथम संस्करण
2019
ख़ालिद मोहम्मद ख़ान पेज न
.81
जंगे अज़ादी और मुसलमान फ़रोस मीडिया एंड पब्लिशिंग प्राइवेट लिमिटेड जामिआ नगर नई दिल्ली प्रथम संस्करण
2019
ख़ालिद मोहम्मद ख़ान पेज न
.83
लहू बोलता भी है जंगे-आज़ादी-ए-हिन्द के मुस्लिम किरदार सैय्यद शहनवाज़ अहमद क़ादरी, कृष्ण कल्कि प्रकाशक लोकबंधु राजनारायण के लोग लखनऊ पेज न. 184
लहू बोलता भी है जंगे-आज़ादी-ए-हिन्द के मुस्लिम किरदार सैय्यद शहनवाज़ अहमद क़ादरी, कृष्ण कल्कि प्रकाशक लोकबंधु राजनारायण के लोग लखनऊ पेज न. 185
RTI
Ministry of Culture MCULT/R/E/23/00394 date 19/10/2023
मौलवी लियाकत अली सीमा आज़ाद
National Book Trust,India
1857-
के
-
संघर्ष में इलाहाबाद
-
के
-
परगना
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चायल
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की
-
भूमिका डॉ यूसुफा नफ़ीस रीडर मध्यकालीन इतिहास हमीदिया गर्ल्स डिग्री कॉलेज
https://rsdebate.nic.in/bitstream
राज्य सभा डिबेट में
16
मार्च
1992
पेज नं
187
https://rsdebate.nic.in/bitstream
राज्य सभा डिबेट में
16
मार्च
1992
पेज नं
188